श्री राधारमणो विजयते
गुरु द्वारा शिष्य को सबसे पहले तिलक की प्राप्ति होती है फिर माला, मंत्र और चौथी चीज ईस्ट की प्राप्ति होती है। फिर शिष्य को ग्रंथ की प्राप्ति होती है, भगवान से संबंध की प्राप्ति होती है। सातवीं गुरु से शिष्य को स्वरूप की प्राप्ति होती है। और
आठवीं गुरु द्वारा शिष्य को उपासना की प्राप्ति होती है। ईष्ट भी मिल गया संबंध भी मिल गया, स्वरूप भी मिल गया। अब उपासना कैसे करें??
जैसे नरोत्तमदास ठाकुर ने लिखा है-
राधाकृष्ण प्राण मोरा जुगल किशोर,
जीवने मरणे गति आर नाहि मोर।
कलिंदिर कूले केली कदम्बेर वन,
रतन बेदीर् ऊपर बसाब दुजान।
श्याम गौरी अंगे दीबो चंदनेर गंध,
चामर् ढुलाबो कबे हेरिबो मुखचंद्र।
और अंत में
सेवा अभिलाष करे नरोत्तम दास।।
उपासना का स्वरूप क्या है? यह भी भजन में प्राप्ति होती है। जैसे स्वरूप के बाद किसी की उपासना है क्या आप चामर की सेवा करो।
जैसे राधारमणजी की सेवा में भी हमारी जो निजी नितांत उपासना है वह औलाई की है। जब सेवा हो राधारमणजी की कुछ और भी अवसर मिल जाता है कि कर लो ऐसा कभी हो तो महाराज जी की आज्ञा है कोई और कम रखो ना रखो औलाई जरुर करो।
कई हमारे ऐसे गोस्वामी है जिनकी सेवा मंगला की है। यह उसकी निश्चित उपासना है। इसको कहा जाता है उपासना। जो बिल्कुल निश्चित होती है।
हजारों ऐसे उपक्रम प्राप्त होते हैं।
जैसे हमारी विजयलक्ष्मी माता राधारमणजी में। आप सब जानते हो। आज से 40-45 साल पहले गुरु आज्ञा से जगन्नाथ जी से पैदल चलकर 3 महीना में वृंदावन आईं। गुरु आज्ञा से मंगला में गीतगोविंद राधारमणजी को सुनाती हैं। यह होती है निश्चित उपासना का स्वरूप।
कोई लंबी छोटी बात नहीं होती है। राधारमणजी जाते हो कोई एक सीढ़ी अपनी करो। तुम सोचते हो कि हम बनाएंगे 10 लाख का बंगला। कोई एक रेलिंग का पाइप है वह तुम्हारा है। आप चाहे उस पर इत्र लगाना है क्या लगाना है उस पर परफेक्ट होना चाहिए।
ठाकुरजी छोटी चीज देखते हैं। ऐसे-ऐसे वैष्णव है जो श्रीमंदिर के एक पत्थर के टुकड़े को रगड़ रगड़ कर साफ रखते हैं कि यह मेरा है। नजर पड़े तो आनंदित हो जाए। सेवा में छोटी वस्तु खोजनी होती है। बड़ी वस्तु नहीं खोजनी होती।
ये होता है उपासना का स्वरूप।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
First of all the disciple gets the Tilak from his Sadguru, then he gets the Mala, followed by the Mantra and fourth is the Ishtha. Subsequently, he gets the Granth and the relationship with the Divine is established. The seventh thing that the disciple gets is the Swaroop.
The eighth thing the disciple gets is Upasana. One gets the Ishtha, then he gets the relationship and finally gets the Swaroop. Now, how does one do the Upasana?
Shree Narottam Das Thakur writes –
‘Radhakrishna praana mora jugal kishore,
Jeevanney maranney gati aar naahi more|
Kaalindir kooley keli kadamber bana,
Ratan beddir ooperey bosaab duijon||
Shyam Gauri aunggey deebo chandaner gandha,
Chaamer dullabo kobbey heribo mukhochandra|
In the end,
Sewa abhilaash korrey Narottam Das||
What is the Swaroop of Upasana? This is obtained in Bhajan. After the Swaroop, performing the Chaamer Sewa is also the form of Sewa!
In Shree Radha Ramanji’s Sewa, our personal internal Upasana is ‘Aulaai’! When our turn of Sewa comes of Shree Radha Ramanji then usually we get to do different types of Sewa but Maharajji has asked us that whether you do anything else or not, atleast do the ‘Aulaai’!
Many of our Goswamis do the Mangala service. This is most certainly Upasana. This is called Upasana and it is the absolute Sewa!
We get many such opportunities!
As you all may be aware, 40/45 years ago, with Shree Guru’s permission, our Vijaylakshmi Mataji walked all the way from Shree Jagannath Puri to Shree Radha Ramanji at Vrindavan in three months time. After getting the ‘Guru-Aagya’, every day during the Mangala, she would recite the Geet Govind for Shree Radha Ramanju! This is most certainly the swaroop of Upasana.
There is nothing big or small here. When you go to Shree Radha Ramanji, decide a particular step for yourself. You think that you will do a 10 Lakh Bangla. Pick a railing pipe for yourself. Whether you want to apply Itra or whatever you like but it must be perfect.
Thakurji notices even the smallest of things. There are such Vaishnavas who choose a particular stone and keep on cleaning it assuming its ownership. When one looks at it, you feel delighted. You need to pick small small things in Sewa. No need to look for big things.
This is the swaroop of Upasana!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
प्रथमं शिष्यः गुरुतः तिलकं प्राप्नोति, ततः माला, मन्त्रं च प्राप्नोति चतुर्थं वस्तु पूर्वम्। ततः शिष्यः शास्त्रमाप्नोति ईश्वरसम्बन्धं च प्राप्नोति। शिष्यः सप्तमगुरुतः रूपं प्राप्नोति। तथा
शिष्यः अष्टमगुरुतः पूजां प्राप्नोति। मम प्रेम्णः प्राप्तः, मम सम्बन्धः प्राप्तः, मम रूपमपि प्राप्तवान्। इदानीं कथं पूजा कर्तव्या??
यथा नरोत्तमदास ठाकुरेन लिखितम्-
राधाकृष्ण प्राण मोरा जुगल किशोर, ८.
जीवनमृत्युवेगः न पुनः।
कालिन्दिर कूले केली कदुम्बर वन, ८.
रतन बेदी अप बसब दुजन।
श्याम गौरी अंगे दिबो चंदनेर गंध, 1999।
चमर् धुलाबो कबे हरिबो मुखचन्द्र।
अन्ते च
सेवाकामं करोतु नरोत्तम दास।
पूजारूपं किम् ? भजनेऽपि एतत् सिध्यति । स्वरूपपश्चात् कस्यचिदपि पूजा भवति इव, किं त्वं चमारं सेवसे ?
यथा राधारमञ्जीसेवायामपि अस्माकं व्यक्तिगतं परमपूजा औलैं भवति। यदा कदापि राधारमञ्जीसेवायाः अन्यः कोऽपि अवसरः प्राप्यते, यदि कदापि भवति तर्हि महाराजजी इत्यस्य आदेशः एव, न्यूनं धारयतु वा न वा, अवश्यं कर्तव्यम्।
अस्माकं बहवः तादृशाः गोस्वामी सन्ति येषां सेवा मङ्गला अस्ति। एषा तस्य निश्चिता पूजा। एषा पूजा उच्यते। यत् सर्वथा निश्चितम् अस्ति।
एतादृशाः उपक्रमाः सहस्राणि प्राप्यन्ते ।
यथा अस्माकं विजयलक्ष्मी माता राधारमञ्जी। त्वं सर्वं जानासि। ४०-४५ वर्षपूर्वं गुरुस्य आज्ञानुसारं ३ मासेषु जगन्नाथजीतः पदातिना वृन्दावनम् आगता । गुरुनुज्ञां प्राप्य मङ्गलायां गीतगोविन्दराधारमञ्जीम् पाठयति । एतत् निश्चितं पूजारूपम् अस्ति।
दीर्घं लघु वा द्रव्यं नास्ति। राधारमञ्जी, त्वं गच्छ, सोपानं एकं स्वस्य कृते गृहाण। भवन्तः मन्यन्ते यत् वयं दशलक्षरूप्यकाणां बंगलं निर्मास्यामः। रेलिंगे एकः नली अस्ति, सा च भवतः अस्ति। गन्धं लेपयितुम् इच्छसि वा किं वा प्रयोक्तव्यं वा तत् सिद्धं भवेत् ।
ठाकुरजी लघु वस्तूनि पश्यति। एतादृशाः वैष्णवः सन्ति ये मन्दिरे शिलाखण्डं मर्दयन्ति, मम इति स्पष्टं धारयन्ति। यदि पश्यसि तर्हि सुखी भविष्यसि। सेवायां लघु वस्तु अन्वेष्टव्यं भवति। न किमपि महत् वस्तु अन्वेष्टव्यम्।
इति पूजारूपम् ।
॥परमराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥