श्री राधारमणो विजयते
गुरुकृपा से शिष्य को धैर्य की प्राप्ति होती है। थोड़ा अगर किसी के पास स्थिरता नहीं आएगी, धैर्य नहीं आएगा, गुरु नहीं है तो वह थोड़ा भटकेगा। परमात्मा का पास वाला अनुभव गुरु है। तो जरा वह आसानी से धैर्य कर लेता है। और अंत में
जैसे किसी स्त्री के पास ना कोई बिछुआ हो, ना अंगूठी हो, ना मंगलसूत्र हो बस सिंदूर हो। और कई बार ना मांग में सिंदूर भी ना हो तो उसके पास वो जो शीलता है, उसके पास उसकी संकुचितता है वह अपने आप बता देती है कि यह साध्वी नारी है।
वो जो शीलता है, वो जो संकुचितता है ये सोलहवाँ श्रृंगार है जो मैं बहुत तसल्ली के साथ कहना चाहता हूंँ वो अंतिम वस्तु गुरुकृपा से ही मिलती है। ये गुरुकृपा ही है और कोई चीज नहीं है।
इस प्रकार गुरु द्वारा शिष्य का सोलह सिंगार संपन्न होता है।
करले शृंगार चतुर अलबेली, साजन् के घर जाना होगा।।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
By the benevolence of the Sadguru, one attains patience. If one does not have stability or patience or the person doesn’t have a Guru in his life then there is every possibility that he will wander listlessly. The Divine experience can only be experienced through the Guru. Then, one develops patience very easily. In the end;
If the lady isn’t wearing any toe rings or finger rings or no Mangal Sutra, but she has vermillion in her hair parting. At times, even if she doesn’t have the vermillion but the humility which she has and she has the bashfulness which indicates that she is a saintly person or a Sadhvi!
This humility, this timidity, in my opinion is the sixteenth Shringar which one gets only through Guru’s grace. This is only and only Sadguru’s benevolence!
In this manner the Guru decorates or adorns the disciple in sixteen different ways!
‘Karley Shringar chattur albeli, saajan ke ghar jaana hoga’||
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
गुरुप्रसादेन शिष्यः धैर्यमवाप्नुयात् | यदि कस्यचित् स्थिरता, धैर्यं, गुरुः नास्ति, तर्हि सः किञ्चित् भ्रमति। ईश्वरस्य समीपत्वस्य अनुभवः गुरुः एव। अतः सः सहजतया धैर्यं प्राप्नोति। अन्ते च
यथा स्त्रियाः न बिछुः न वलयः न मङ्गलसूत्रं केवलं सिन्दूरम्। बहुवारं च तस्याः केशेषु सिन्दूकं नास्ति चेदपि तस्याः विनयः, तस्याः संकीर्णचित्तता, स्वयमेव सा साधुः इति वदति।
स विनयः, सा संकीर्णता, एषः षोडशः अलङ्कारः, यत् अहं महता सन्तोषेण वक्तुम् इच्छामि यत् अन्तिमं वस्तु गुरुप्रसादेन एव सिद्ध्यति। इयं केवलं गुरुप्रसाद एव नान्यथा।
एवं शिष्यस्य षोडश अलङ्काराः गुरुणा समाप्ताः भवन्ति।
चतुरः अल्बेली मेकअपं कृत्वा, साजनस्य गृहं गन्तुं प्रवृत्तः भविष्यति।
परमाराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।।