श्री राधारमणो विजयते
तितिक्षा ये भगवान का घर है। बड़ी से बड़ी चीज को सहन करना। आज वही हमसे नहीं होता। अपने को ही आधा आदमी सहन करने को तैयार नहीं। पहले अभ्यास कराते थे। सहन करते थे सब उसी से बड़े होते थे। हमारे पास सहन करने की ताकत होनी चाहिए। कभी-कभी अवसर लगे तो उसको भी देखना चाहिए।
हमें कभी-कभी ऐसा अवसर भी होता है कि अपने भीतर देखना चाहिए सहन करने की क्षमता कितनी है? सहन करना और शोषण ये दो अलग चीज है। इसकी जो difference है उसको समझिएगा। आपकी सहनशक्ति किसी को शोषण करने काअवसर न दे।
इसमें बहुत अंतर है। सहन किसी दूसरे से ज़्यादा आप विचार करो अपने को कितना करते हो? हमपे तो वो भी नहीं होते। अपना ही दिमाग जब दस जगह दौड़ता है हम अभी उसी को नहीं सह पाते। दूसरे का तो नम्बर बाद में आएगा।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
‘Titeeksha’ or forbearance is the dwelling place of the Almighty. To be tolerant or endure everything that befalls. Unfortunately, we are not able to do this. One is intolerant towards one ownself. In earlier times, people were asked to practice endurance. People would grow up enduring! We all need the strength to endure. Some times if you get the opportunity, try to practice it!
At times we should introspect to see how tolerant we are? Forbearance and exploitation are two different things. Please understand the difference between the two. Your endurance should not enable anyone to exploit you.
There is a lot of difference between the two. Please should examine for themselves as to how tolerant they are towards themselves than others? We are unable to do it. When our mind wanders listlessly here and there, we are unable to control it and get perturbed by this. Others come much later!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
तितिक्षा इति ईश्वरस्य गृहम्। बृहत्तमानि अपि वस्तूनि सहन्। अद्य अस्माकं अपि तथैव न भवति। स्वस्य अर्धपुरुषं सहितुं न सज्जः। पूर्वं वयं तान् अभ्यासं कुर्मः स्म। सर्वान् सह्यमानः तस्य सह वर्धितः च। अस्माकं सहनशक्तिः भवितुमर्हति। कदाचित् अवसरः अस्ति चेत् तदपि द्रष्टव्यम्।
कदाचित् अस्माकं अपि एतादृशः अवसरः भवति यत् अस्माभिः स्वस्य अन्तः अवलोकनीयम्, अस्माकं कियत् सामर्थ्यं सहनीयम्? सहिष्णुता शोषणं च द्वौ भिन्नौ विषयौ स्तः। तस्य भेदं अवगच्छन्तु। भवतः सहनशक्तिः भवतः शोषणस्य अवसरं कस्मै अपि न दातव्यम्।
तत्र बहु भेदः अस्ति। कियत् सहसे त्वं स्वयमेव, अन्येभ्यः अधिकं? अस्माकं तत् अपि नास्ति। यदा अस्माकं मनः वन्यः धावति तदा वयं तत् सहितुं असमर्थाः स्मः। द्वितीयस्य वारः पश्चात् आगमिष्यति।
..परमराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराजा:।