श्री राधारमणो विजयते
गुरु निष्ठा या वैष्णव निष्ठा, धाम निष्ठा, नाम निष्ठा और स्वरूप निष्ठा ये भक्तियोग के चार स्वरूप है। गुरु के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा। गुरु कृपा के संधान के बिना वो बात बनती नहीं है।
शिष्य कैसा होता है? शिष्य कमल की तरह है। भगवद् कृपा कैसी है? सूर्य की तरह है और गुरु आश्रय सरोवर की तरह है।
कमल जब सरोवर में डूबा रहता है तब सूर्य की किरण उसे खिला देती है और अगर कमल को सरोवर से बाहर निकाल दो तो क्या कभी सूर्य उसको खिला सकता है? जला सकता है खिला नहीं सकता। सूर्य के नीचे रखदो तो पूरा कमल जल जाएगा, खिल नहीं सकता। पूरी कोशिश कर लो, टूट जाएगा पर खिलाना मुश्किल होगा। ऐसे ही
जो गुरु के सरोवर में डूबकरशिष्य रहता है उसे श्रीराधारमण जी की कृपा खिला देती है। इसलिए भक्तियोग का पहला स्वरूप है गुरुनिष्ठा।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
Guru Nishtha or Vaishnava Nishtha, Dhaam Nishtha, Naam Nishtha and Swaroop Nishtha are the four forms or pillars of Bhakti Yoga. Having complete trust or an unshakable Nishtha on the Guru! Without Guru’s grace, nothing is possible!
How should the disciple be? He should be like the Lotus! How is the Divine grace? It is like the Sun and the refuge or the Guru Ashraya is like the pond!
The rays of the Sun make the Lotus bloom in the pond but if you pluck the Lotusbud, will the Sunray open it? It might burn it but won’t blossom it! Place the Lotus bud in the sun, it will wilt but won’t bloom. You may try as much as you like but it won’t blossom. Similarly;
The disciple immeresed in the lake of the Sadguru’s grace, Shree Radha Ramanji’s grace will blossom him/her. That’s why the first form of Bhakti Yoga is Guru Nishtha!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
गुरु निष्ठा अपितु वैष्णव निष्ठा, धाम निष्ठा, नाम निष्ठा, स्वरूप निष्ठा च भक्तियोगस्य चत्वारि रूपाणि सन्ति। गुरु प्रति प्रबल भक्ति। तत् वस्तु गुरुप्रसादेन विना सम्भवति।
शिष्यः कीदृशः ? शिष्यः पद्मवत् । ईश्वरस्य अनुग्रहः कथं अस्ति ? सूर्य इव गुरोः आश्रयः सरसः इव अस्ति।
यदा कमलं सरसि निमग्नं भवति तदा सूर्यस्य रश्मयः तत् पोषयन्ति तथा यदि भवन्तः ह्रदतः पद्मं बहिः निष्कासयन्ति तर्हि सूर्यः कदापि तत् पोषयितुं शक्नोति वा? दहितुं शक्नोति, भोजनं कर्तुं न शक्नोति। सूर्याधः स्थापयित्वा सर्वं पद्मं दग्धं भविष्यति न च पुष्पितुं शक्नुयात् । यथाशक्ति प्रयतस्व, भग्नं भविष्यति परन्तु भोजनं दुष्करं भविष्यति। एवमेव
गुरुसरोवरे निमज्ज्य यः शिष्यः एव तिष्ठति, सः श्री राधारमण जी इत्यस्य आशीर्वादेन पोषितः भवति। अतः भक्तियोगस्य प्रथमरूपं गुरुभक्तिः।
..परमराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराजा:।।