श्री राधारमणो विजयते
आँखें दो प्रकार की है। एक बाहर की आँखें एक भीतर की आँखे। आध्यात्म का बाहर की आँखों से कोई मतलव नहीं। बाहर की आँखें ठीक भी है तो मात्र सुन्दरता दिखेगी। यही देख पाओगे बँगले से भगवान कितने सज गए पर अगर भीतर की आँख खुली रहेगी तब कहोगे भगवान से बँगला कितना सज गया है। दोनों में फरक है।
भीतर में भी तीन आँखे है प्रेम ज्ञान वैराग्य। ज्ञान भीतर से दिख सकता है बाहर से नहीं दिख सकता। ज्ञान भीतर का विषय है। प्रेम भी भीतर का विषय है और वैराग्य भी भीतर का ही विषय है। ये तीन भीतर की आँखें हैं।
ये तीन आँखे सबके पास है पर दिख नहीं रहा दर्पण में साफ। क्योंकि आँखों में कुछ खराबी आ गई है कैटरेक्ट हो गया है। ज्ञान की जो आँख है उसको अभिमान का मोतियाबिन्द लग गया, जो वैराग्य की आँखें है उसको माया का मोतियाबिन्द लग गया और जो प्रेम की आँखें हैं उसको काम का मोतियाबिन्द लग गया है।
दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसके पास ज्ञान न हो। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसमें वैराग्य न हो। आँखें हैं लेकिन कालापानी लग गया है दिख नहीं रहा। आँखें खराब हो जाय तो उसको फोड़ा नहीं जाता उसमें दवाई लगाई जाती है ऐसे ही तुम्हारे प्रेम में काम का कालापानी है ज्ञान में अहंकार का कालापानी है और वैराग्य में राग का कालापानी है।
इस कालेपानी कि दवाई क्या है..??
कर कँजन अँजन।। श्रीगुरु चरण रज रूपी अँजन जब गुरु आश्रित अँजन होगा तब ये भीतर की आँखें ठी हो जाएगी।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
There are two types of vision. One is the external vision and the other is an internal vision. Spirituality has nothing to do the external vision. If your eyes are fine and you can see clearly then you will be able to see the external beauty. You will be able to see the Divine beauty of the ‘Phool-Bangla’ and the Lord looking resplendent, but when your inner vision is clear then you will say that with the Divine presence of the Almighty, this entire decoration has become so beautiful. There is a difference between the two.
We have three eyes to see within, ‘Prema, Gyan and Vairagya’. Gyan or wisdom is within, not outside. Wisdom is an internal thing. Prema or Divine Love is also an internal subject. Even renunciation or Vairagya is internal. These three are the eyes which enable you to see within.
Everyone has been given these three but the image in the mirror is not clearly visible. It means that cataract is developing which has blurred the vision. The eye of wisdom has developed the cataract of ego, the eye of renunciation has been blurred by Maya and the eye of Divine Love is affected by the glaucoma of kama.
Everyone has some knowledge. Each individual is dispassionate to some extent. Eyes are there but the vision is blurred. When one can’t see clearly then you don’t go and blind yourself but you put eye drops or an eye ointment. Therefore, the eye of Prema is affected by Kama, Gyan by ego and Vairagya by Raga.
What is the medicine for this loss of vision….??
‘Kara kanjan anjan’|| When you apply the Kohl of Shree Guru Charan Rujja, unconditionally surrendered to the Sadguru then the inward vision becomes clear!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
तत्र नेत्रयोः द्विविधम् । एकं बहिः नेत्रं, एकं अन्तः नेत्रम्। बाह्यनेत्रेषु आध्यात्मिकतायाः कोऽपि अर्थः नास्ति। बाह्यचक्षुषः सुष्ठु अपि सौन्दर्यमेव दृश्यते । अत्रैव भवन्तः द्रष्टुं शक्नुवन्ति यत् ईश्वरः बंगलं कियत् अलङ्कृतवान्, परन्तु यदि भवतः अन्तः नेत्राणि उद्घाटितानि तिष्ठन्ति तर्हि भवन्तः वदिष्यन्ति यत् बंगलः कियत् ईश्वरेण अलङ्कृतः अस्ति। तत्र तयोः भेदः ।
अन्तः अपि त्रीणि नेत्राणि सन्ति- प्रेम, ज्ञानं, त्यागः च। अन्तः ज्ञानं द्रष्टुं शक्यते किन्तु बहिः न। ज्ञानं आन्तरिकं द्रव्यम् अस्ति। प्रेमापि आन्तरिकं द्रव्यं वैराग्यमपि आन्तरिकं द्रव्यम्। एतानि त्रीणि अन्तः नेत्राणि।
सर्वेषां एतानि त्रीणि नेत्राणि सन्ति किन्तु ते दर्पणे स्पष्टतया न दृश्यन्ते। यतः नेत्रयोः काचित् समस्या अस्ति, अतः मोतियाबिन्दुः जातः । ज्ञाननेत्रेषु अभिमानस्य मोतियाबिन्दुः, त्यागस्य नेत्रेषु माया मोतियाबिन्दुः, प्रेमचक्षुषः कामस्य मोतियाबिन्दुः च प्राप्तः।
न विद्यते लोके यस्य ज्ञानं नास्ति। न हि लोके संन्यासः न विद्यते । नेत्राणि सन्ति किन्तु कृष्णजलेन आवृतानि न दृश्यन्ते। यदि नेत्राणि क्षतिं प्राप्नुवन्ति तदा न विदीर्णानि, तस्मिन् औषधं प्रयुज्यते, तथैव भवतः प्रेम्णि कामस्य कृष्णजलं भवति, ज्ञाने अहङ्कारस्य कृष्णजलं भवति, त्यागे च सङ्गस्य कृष्णजलं भवति।
अस्य कृष्णजलस्य औषधं किम्??
करो कंजन अञ्जन। यदा श्रीगुरुपादयोः रजतरूपेण अन्धकारः गुरुआश्रितः भविष्यति तदा एतानि अन्तः नेत्राणि स्वस्थाः भविष्यन्ति।
..परमराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराजा:।।