🙌🏼 आज श्रीगोपालभट्ट गोस्वामी पाद के तिरोभाव महा-महोत्सव पर विशेष :::
श्रीगौड़ीय षड् गोस्वामियों में श्री गोपालभट्ट गोस्वामी अन्यतम हैं।ब्रजलीला में आप श्री अंनग मञ्जरी हैं। अनंगमंजरी ललिता देवी और विशेष रूप से विशाखा जी की अति प्रिया हैं। गौरलीला में श्रीअनंगमंजरी श्रीगोपालभट्ट गोस्वामी नाम से अवतरित हैं। कोई इन्हें श्रीगुणमञ्जरी भी कहते हैं-

अंनग मञ्जरी यासीत् साद्य गोपाल भटटक:।।
भटट गोस्वामिनं केचिदाहु: श्रीगुणमञ्जरी।।
श्रीरंग क्षेत्र में कावेरी के कूल स्थित बेलगुण्डि ग्राम में श्री-सम्प्रदायी श्रीवैंकट भट्ट के घर संवत् 1557 में आपका आविभार्व हुआ।श्रीमन्महाप्रभु श्रीकृष्ण चैतन्यदेव संवत् 1568 में दक्षिण यात्रा करते हुए रंग क्षेत्र में पधारे।वहां श्रीरंगनाथ दर्शन करके आप प्रेमाविष्ट हो उठे और नृत्य-पूर्वक नाम संकीर्तन करने लगे।श्रीवेंकटभटट जी ने श्रीमन्महाप्रभु के वहाँ दर्शन किए एंव उनके आजानुलम्बित परम भाव-माधुर्यमय विग्रह के दर्शन कर अति प्रभावित हुए।उनके चरणों में पड़कर उन्हें अपने घर भिक्षा करने की प्रार्थना की।प्रभु ने उन्हें परम वैष्णव जानकर उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया।भिक्षा ग्रहण करने के बाद अनेक काल तक श्रीकृष्ण-कथा में दोनों भाव-विभोर हो उठे।
चातुर्मास्य आया, श्रीवैंकट जी ने श्रीमन्महाप्रभु के चरणों में विनम्र प्रार्थना क़ी – प्रभो ! आप कृपा कर चातुर्मास्य पर्यन्त मेरे घर में ही निवास कीजिये और श्रीकृष्ण-कथा कह कर मेरा निस्तार कीजिए।श्रीमन्महाप्रभु ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और चार मास वहाँ रहे। नित्य कावेरी स्नान, श्रीरंग दर्शन और प्रेमावेश में संकीर्तन गान करते।कोटि-कोटि लोग वहाँ श्रीमन्महाप्रभु के दर्शन कर श्रीकृष्णनाम-प्रेम में उन्मत्त हो उठे।
श्रीवैंकटभट्ट के घर में प्रभु-वास के समय श्रीगोपालभट्ट जी 11 वर्ष के बालक थे।उन दिनों इन्हें श्रीमन्महाप्रभु की हर प्रकार की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ।उनका उचिछष्ट प्रसाद भी इन्हें प्राप्त होता।श्रीमहाप्रभु जी भी श्रीगोपाल जी से अत्यधिक स्नेह करते।इस प्रकार इन्होंने उनकी असीम कृपा प्राप्त की।
भक्ति रत्नाकर से यह जाना जाता है कि श्रीमन्महाप्रभु की सेवा का इन्होंने सौभाग्य प्राप्त किया और प्रभु ने यह भी कृपादेश दिया कि गोपाल ! तुम श्रीवृन्दावन चले जाना।वहाँ श्रीरूप-सनातन के निकट रहकर भजन-साधन कर तुम्हें कृष्ण-प्राप्ति होगी।
श्रीमन्महाप्रभु के चले जाने के बाद श्रीगोपालभटट् जी ने पिता के छोटे भाई (चाचा जी) श्रीप्रबुद्ध जी(श्री प्रबोधानन्द जी)से दीक्षा ग्रहण की और शास्त्र अध्ययन करने लगे।कुछ दिन बाद श्रीप्रबुद्ध जी संसार से विरक्त होकर काशी चले गए।वे शंकरभाष्य से प्रभावित होकर मायावादी श्रीप्रकाशानंद सरस्वती नाम से प्रसिद्ध हुए।आगे चल कर उन्हीं का उद्धार कर श्रीमन्महाप्रभु जी ने पुनः श्रीप्रबोधानन्द नाम प्रदान कर उन्हेँ श्रीवृन्दावन जाने का आदेश दिया।
श्रीगोपालभटट् गौर-प्रेम में उन्मत्त हो श्रीवृन्दावन जाने के लिए उत्कण्ठित रहने लगे।दिन-रात हा गौर ! हा कृष्ण ! पुकार-पुकार कर वृन्दावन के लिए व्याकुल रहने लगे।अश्रु पुलकादि सात्त्विक भावों से विभूषित हो उठते।अन्त में अपने माता-पिता के देहावसान के बाद श्रीभटट् जी सब कुछ परित्याग कर वृन्दावन की ओर चल पड़े। यहाँ श्रीरूप-श्रीसनातन गोस्वामी के चरणों में आकर प्रणिपात किया।दोनों ने श्रीगोपाल को सप्रेम आंलिगन किया और अपने पास आश्रय दिया।

आप कुछ दिन श्रीराधाकुण्ड-श्यामकुण्ड के बीच केलि कदम्ब के नीचे वास करने के बाद जावट के पास किशोरी-कुण्ड पर भजन-साधन करते रहे।श्रीपाद रूप-सनातन ने नीलाचल में श्रीमन्महाप्रभु को पत्र द्वारा श्रीगोपालभट्ट जी के वृन्दावन आने की सूचना भेजी।श्रीमहाप्रभु जी अति प्रसन्न हुए एवं वहाँ से अपनी डोर, कोपीन, बहिर्वास व आसन श्रीगोपाल भट्ट के लिए प्रसाद रूप में भेजा जो आज भी श्रीराधारमण जी के मन्दिर में दर्शनीय हैं।
कुछ समय के बाद आप उत्तर-भारत में शुद्ध भक्ति का प्रचार-प्रसार करने के लिए यात्रा पर निकले।गण्डकी नदी पर एक दिन स्नान कर रहे थे।सूर्योपासना के लिए ज्यों ही आपने अञ्जलि में जल लिया तो एक अदभुत सुन्दर दामोदर शालिग्राम शिला आप की अञ्जलि में आ गई।इसी प्रकार दूसरी बार अञ्जलि में छोटी-बड़ी बारह शालिग्राम शिलाएँ आई।आप उन्हें लेकर ब्रज में लौट आए।यहाँ केशीघाट के निकट यमुना किनारे आप अति भाव-विभोर होकर शालिग्राम की पूजा करने लगे।
वृन्दावन यात्रा करते हुए एक सेठ जी ने वृन्दावनस्थ तत्कालीन समस्त श्रीविग्रहों के लिए अनेक प्रकार के बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण आदि भेंट किए। श्रीगोपाल भटट् जी को उसने वस्त्र-भूषण दिये, परन्तु श्रीशालिग्राम जी को कैसे वे धारण करायें।यह बात सोचते-सोचते आपको रात भर नींद नहीं आई।
प्रात: काल जब वह उठे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्होंने देखा कि श्री शालिग्राम जी त्रिभंग ललित द्विभुज मुरलीधर मधुर मूर्ति श्रीव्रजकिशोर श्याम रूप में विराजमान है। श्री गोस्वामी ने भावविभोर होकर वस्त्रालंकार विभूषित कर अपने आराध्य का अनूठा श्रृंगार किया श्री रूप सनातन आदि गुरुजनों को बुलाया और श्रीराधारमणलाल का प्राकटय महोत्सव श्रद्धापूर्वक आयोजित किया गया।
यही श्रीराधारमण लाल जी का विग्रह आज श्रीराधारमण देव मंदिर में गोस्वामी समाज द्वारा सेवित है और इन्ही के साथ श्रीगोपाल भट्ट जी के द्वारा सेवित अन्य शालिग्राम शिलाएं भी मन्दिर में स्थापित हैं ।1599 की वैशाख पूर्णिमा को शालिग्राम शिला से श्रीराधारमण जी प्रकट हुए।श्रीराधारमण जी का श्री विग्रह वैसे तो सिर्फ द्वादश अंगुल का है, तब भी इनके दर्शन बड़े ही मनोहारी हैं। श्रीराधारमण विग्रह का श्री मुखारविन्द “गोविन्द देव जी” के समान, वक्षस्थल “श्री गोपीनाथ” के समान तथा चरणकमल “मदनमोहन जी” के समान हैं। इनके दर्शनों से तीनों विग्रहों के दर्शन का फल एक साथ प्राप्त होता है।
इस प्रकार अनेक वैष्णव ग्रन्थ प्रणयन में सहायक होकर एंव श्रीमन्महाप्रभु के भक्तिरस सिद्वान्तों के प्रचार-प्रसार के लिये अनेक व्यक्तियों को दीक्षा-शिक्षा के द्वारा कृपापात्र बनाकर संवत् 1643 की श्रावण कृष्ण पञ्चमी अर्थात आज ही के दिन आप नित्य-लीला में प्रविष्ट हो गए।श्रीराधारमण घेरा में इनके परमाराध्य श्री श्रीराधारमण लाल जी के प्राकट्य-स्थल के पाश्र्व में इनकी पावन समाधि का दर्शन अब उपलब्ध है।
🙌🏼 श्रीराधारमण दासी परिकर 🙌🏼
