एक होता है गोल्ड प्लेट, पानी चढ़ जाए और एक होता है स्वर्ण। गोपी वो नहीं है जो पीतल के ऊपर सोना चढ़ा हो। वो जीव नहीं है। हम जीव हैं तो जीव जीव ही रहेंगे। यही अचिंत भेदाभेद सिद्धांत का स्वरूप है। यही हमारे महाप्रभु के सिद्धांत का स्वरूप है।
जीव ब्रह्म नहीं हो सकता। नहीं तो अद्वैत दर्शन मायावद दर्शन हो जाएगा। विवर्तवाद और परिणाम वाद का अंतर भाष्यकारों ने अनेकों बार निवेदित किया है।
पीतल पर अलग से सोने का पानी चढ़े, अलग बात है। थोड़ी देर बाद निकल सकता है, बह सकता है, फट सकता है। पर जब खरा सोना होगा उसको मिट्टी में भी फेंक दो, थोड़ा सा पानी मारो वैसा ही चमक जाएगा। यही गोपी का परम स्वरूप है।
गोपी वो नहीं है जो ठाकुरजी की सेवा करती हैं, गोपी वो हैं ठाकुरजी जिसकी सेवा करते हैं। ठाकुरजी स्वयं आकर जिनका श्रृंगार करते हैं।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
One is gold plating, wherein the metal is given a gold coating and the other is pure gold. Gopi is not an imitation where the brass is gold plated! She is not Jeeva! We are Jeeva and shall remain one. This is the Swaroop of ‘Achinta Bhedabhed’ doctrine. This is the Swaroop of the doctrine of our Maha Prabhu!
Jeeva can never become Bramha. Or else, the Advaita philosophy will become ‘Mayavaad’! The difference between ‘Vivartavaad’ and ‘Parinaamvaad’ has been done by many seers and commentators.
When brass is gold-plated, it is an entirely different matter. It can get polished off after some time or can just get washed away or can even crack! But when it is pure gold, even if you throw it in mud, just pick it up and wash it, it will be back shining lustrously, as it was! This is the Param-Swaroop of Gopi!
Gopi is not the one who serves the Lord, instead Shree Thakurji serves her. Thakurji himself comes to adorn her!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
एकः सुवर्णपट्टिका, अन्यः सुवर्णः। गोपी न यस्य पीतलस्य उपरि सुवर्णं लिप्यते। सः जीवः नास्ति। यदि वयं प्राणिनः स्मः तर्हि वयं प्राणिनः एव तिष्ठामः। अचिन्त्यविवेकसिद्धान्तस्य स्वरूपमिदम् । अस्माकं महाप्रभुस्य सिद्धान्तरूपमिदम्।
जीव ब्रह्म न भवितुमर्हति। अन्यथा अद्वैतदर्शनं मायावाददर्शनं भविष्यति। विविधतावादस्य परिणामवादस्य च भेदः भाष्यकारैः बहुवारं उक्तः अस्ति ।
पृथक् पृथक् पीतले स्वर्णीकरणं भिन्नं वस्तु अस्ति। किञ्चित्कालानन्तरं बहिः आगन्तुं शक्नोति, प्रवाहितुं शक्नोति, विस्फोटं कर्तुं शक्नोति। परन्तु यदा भवतः समीपे शुद्धसुवर्णं भवति तदा तत् मृत्तिकायां क्षिपन्तु, किञ्चित् जलेन प्रहारं कुर्वन्तु, तदा प्रकाशते। इति गोपिस्य परमरूपम् ।
गोपी न ठाकुरजी सेवते, गोपी ठाकुरजी सेवते। ठाकुरजी स्वयं आगत्य तान् अलङ्करोति।
परमाराध्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।