श्री राधारमणो विजयते ||
सबसे बड़ी चीज है श्रद्धा। उसमें संकल्प होता है, उसमें सम्मान होता है।
ये दो चीज सबसे ज्यादा जरूरी है श्रद्धा के भीतर। पहले नंबर की बात है सबसे पहले श्रद्धा सम्मान से शुरू होती है और संकल्प पर विश्राम होता है। श्रद्धा होती है तभी तो आप संकल्प करते हो और संकल्प उसे कहते हैं जिसमें कोई विकल्प नहीं होता है। विकल्प का मतलब गुंजाइश। कोई गुंजाइश ही नहीं। ऐसा तो हो ही नहीं सकता।
श्रद्धा सम्मान से ही शुरू होती है।
जैसे ही तुमने देखा श्रीकृष्ण को वैसे ही तुम्हारे भीतर सबसे पहले बिना एक्सपेक्ट की रिस्पेक्ट पैदा हुई। अगर रिस्पेक्ट के साथ एक एक्सपेक्ट भी थी तो तुम आशाओं में चले गए। अगर रिस्पेक्ट से के साथ एक्सपेक्ट भी थी तो तो भी तुम निराशाओं से आए हो पर कोई एक्सपेक्ट नहीं थी केवल रिस्पेक्ट थी तब तुम पिपासु हो। तब प्यासे हो।
और प्यास किस चीज की है? जल पीने की नहीं। प्यास है और प्यास भड़क जाने की। यह बात समझनी जरूरी है।
दीक्षा इसकी नहीं है कि कृष्ण मिले, दीक्षा इसकी है कि कृष्णप्रेम मिले। प्रेम मिलेगा तो प्यास तो भड़केगी ही ना।
पिपासा इसकी नहीं है कि जल मिले। अगर जल मिलने की पिपासा है तो तुम आशाओं में आ गए। प्यास ही भड़कती रहे तभी तो तुम पिपासु बनोगे। तभी तो प्यास आवेगी।
कोई रिस्पेक्ट हो और उस रिस्पेक्ट में कोई एक्सपेक्टशंस नहीं हो, केवल समान हो।
देखते ही तुम्हारे भीतर केवल सम्मान का उदय हो सबसे पहले और जैसे ही पलक गिरकर के तुम्हारी नजर उठे तो पहले सम्मान हो और दूसरे ही नजर में तुरंत संकल्प हो कि अब तो यह प्यारा मेरा हो गया है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
The most important thing is Shraddha. There is a Sankalpa and there is respect involved in it!
Both these things are very important in faith. The first thing is that Shraddha starts with respect and ends on Sankalpa. Because you have Shraddha, you are able to do a Sankalpa and a Sankalpa is that which has no Vikalpa or ifs and buts! Vikalpa is where there is an alternative. There is no question of any alternative! There is no possibility at all!
Shraddha begins with respect or Samman!
The moment you see Shree Krishna, instantly without any expectations, a divine respect is born within. If there is any expectation attached to your respect then you have gone into the realm of desires. If there is an expectation against the respect then it might be that you have some sort of disappointment in life! But if no expectation is there and you have only respect then you are a thirsty aspirant or a Pipasu! Because, you are thirsty!
Now, what are you thirsting for? Not for water. There is a thirst and this thirst multiplies! One needs to understand this very carefully!
Deeksha is not given that you attain Shree Krishna, it is only that you should attain the Divine Love or Krishna Prema! Now, if you are blessed with Prema, automatically the thirst or longing for more is bound to multiply!
Thirst is not for water. If you are thirsty for water then again you have a desire attached to it! You can be a Pipasu only if your thirst keeps on multiplying! Only then will you get this longing or thirst!
If there is respect and your respect has no expectation attached to it then it is pure respect!
The moment you see, automatically there is an upsurge of respect and the moment your eyes close in devotion and you open them, instantly there comes respect followed by the Sankalpa or determination that this ‘Pyara’ has become mine!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
बृहत्तमं वस्तु विश्वासः एव। तस्मिन् निश्चयः अस्ति, तस्मिन् आदरः अस्ति।
विश्वासस्य अन्तः एतौ द्वौ विषयौ सर्वाधिकं महत्त्वपूर्णौ स्तः। प्रथमं नम्बरं यत् प्रथमं विश्वासः आदरात् आरभ्य दृढनिश्चये एव अवलम्बते। यदा भवतः श्रद्धा भवति तदा एव भवतः संकल्पः क्रियते यस्मिन् संकल्पः विकल्पः नास्ति इति उच्यते । विकल्पस्य अर्थः व्याप्तिः । न सम्भवति। एतत् न भवितुं शक्नोति।
विश्वासः सम्मानेन आरभ्यते।
श्रीकृष्णं दृष्ट्वा एव भवतः अन्तः आदरः अप्रत्याशितरूपेण उत्पन्नः। यदि सम्मानेन सह अपेक्षा आसीत् तर्हि भवन्तः आशाभिः गतवन्तः। यदि आदरेन सह अपेक्षा आसीत् अपि निराशाभ्यः आगमिष्यसि परन्तु अपेक्षा नासीत्, केवलं आदरः आसीत्, तदा त्वं तृष्णा असि। तदा त्वं तृषितः असि।
किं च तृष्णासि ? जलं न पिबितुं। तत्र तृष्णा तृष्णा च उत्तेजितुं। एतत् अवगन्तुं महत्त्वपूर्णम् अस्ति।
दीक्षा न कृष्णं अन्वेष्टुं, दीक्षा कृष्णप्रेमं अन्वेष्टुं भवति। यदि भवन्तः प्रेम प्राप्नुवन्ति तर्हि भवतः तृष्णा अवश्यमेव प्रज्वलिता भविष्यति।
तृष्णा जलं न प्राप्तुं भवति। यदि त्वं जलं प्राप्तुं तृषितः असि तर्हि त्वं आशायां असि। यदि भवतः तृष्णा निरन्तरं प्रज्वलति तर्हि एव भवतः तृष्णा भविष्यति । तदा एव भवतः तृष्णा भविष्यति।
आदरः भवेत् न च तस्मिन् विषये अपेक्षाः भवेयुः, केवलं समता एव।
पश्यमानमात्रं भवतः अन्तः आदरः एव उत्पद्येत, पलकपतनस्य अनन्तरं भवतः नेत्रयोः उत्थापनमात्रेण प्रथमं आदरः भवेत्, द्वितीयदृष्ट्या एव च सद्यः निश्चयः भवेत् यत् इदानीं एषः प्रियः इति मम अभवत्।
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥