श्री राधारमणो विजयते
धर्म का वास्तविक स्वरूप परोपकार ही है। अगर पूजा भी मात्र स्वार्थ के लिए है तो वो भी अधर्म है पर दूसरे के द्वारा कहे गए अपशब्द में भी परोपकार रहना वो भी सबसे सर्वोत्तम धर्म है।
प्रेम कैसा हो और कहाँ हो? परोपकारी हुए बिना प्रेमी हुआ ही नहीं जा सकता। प्रेम तो सबसे ज़्यादा परोपकार की माँग करता है। स्वार्थ होते ही प्रेम समाप्त हो जाएगा। मैं खड़ा होते ही प्रेम समाप्त हो गया। जहाँ मैं आया प्रेम शून्य हो गया।
जो जब पूर्ण परोपकारी बनता है तभी वो प्रेम के स्तर तक पहुँच सकता है।
प्रेम कैसे होता है? ये होता ही है एक क्षण में। ये जगत हमें मिला है प्रेम का रियाज करने के लिए। वैष्णव धर्म ने कभी नहीं कहा कि इस दुनिया में घृणा करो नफरत करो एक दूसरे से विद्रोह करो बल्कि स्पष्ट कहा यहाँ प्रेम का रियाज़ कर लो।
इस दुनिया में कोई एक ऐसी वस्तु जो यहाँ से नहीं है वो प्रेम नाम की वस्तु है। वो प्रेम क्या है जो स्वतः हो जाय। वो स्वाभाविक कर देता है। प्रेम वो है जो धर्म को स्वाभाविक कर देता है। यहाँ उसका रियाज़ हो यहाँ उसका अभ्यास हो। यहाँ से शुरू करो।
श्रीबड़े महाराज श्री की मंगलमयी बात है- यहाँ से उसे शुरू करो। पर हाँ इतनी सावधानी रखना कि वो यहाँ खतम न कर देना। अगर यहाँ से शुरू हुआ प्रेम यहीं खत्म हो गया तो प्रेम भी खत्म हो जायेगा और आप भी खत्म हो जाओगे।
साधना किसे कहते हैं प्रेम शुरू यहाँ से करो पर खतम श्रीराधारमण के चरणारविंद में हो जाय।
इस प्रेम में वासना नहीं उपासना हो जाएगी। ये इसकी स्वाभाविकता का निर्णय कर देगा।
कथा ही वो एकमात्र माध्यम है जिसके द्वारा सबसे पहले कृष्ण के साथ प्रेम हो सकता है। तव कथाऽमृतम्।।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
The actual swaroop of Dharma is charity or benevolence. If the pooja is also performed for your selfish interest then that too becomes Adharma but if the abuse done by someone else is taken lightly, in the right spirit then this can become the highest form of Dharma!
What should be Prema and where should it be done? Without being benevolent, you cannot become a Premi or a Divine Lover! Prema always demands benevolence! The moment an iota of selfishness gets in, Prema is lost! The moment ego raises it’s head, Prema is destroyed. When the self rears its head, Divine Love becomes zero!
The one who becomes fully benevolent, only then can he aspire to reach the level of Prema.
How can one do Prema? It just happens in a fraction of a second! We have been given this world to practice Prema. The Vaishnava Dharma never says that you hate the world or revolt against or assualt the other person, instead it says that practice Prema!
The one thing which is not of this world, is Prema! What is that Prema which just happens without any effort? It makes you naturally humble! Here and now, you need to understand and practice it! Start from here!
Baddey Maharaj Shri used to say this that begin from wherever you are, here and now! But please be careful that you don’t end it here! If the Prema that begins here, ends here then you as well as Prema, both are finished!
What is Sadhana? Start Prema here and end it at the Divine Lotus Feet of Shree Radha Ramanji!
This Prema will be devoid of any vaasana or passion, instead it will become Upasana. This will decide it’s true nature!
Katha is the only medium which will establish your Prema with Shree Krishna! ‘Tava kathamrittam’||
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
धर्मस्य वास्तविकं स्वरूपं दानम् एव। यदि पूजा स्वार्थमात्रेण भवति तर्हि तदपि अधर्मः, परन्तु परैः उक्तानाम् अपशब्दानां अभावेऽपि दानधर्मः एव उत्तमः धर्मः।
प्रेम कीदृशं भवेत् कुत्र च ? दानशीलं विना कान्तं न भवितुमर्हति । प्रेम दानस्य सर्वाधिकं आग्रहं करोति। स्वार्थः भवति एव प्रेम्णः समाप्तिः भविष्यति। अहं उत्तिष्ठन् एव प्रेम्णः समाप्तिः अभवत्। यत्र अहम् आगतः तत्र प्रेम शून्यता अभवत्।
यदा सर्वथा परोपकारी भवति तदा एव प्रेमस्य स्तरं प्राप्तुं शक्यते ।
प्रेम कथं भवति ? एतत् क्षणमात्रेण भवति। अस्माकं प्रेमाभ्यासाय अयं संसारः दत्तः अस्ति। वैष्णवधर्मः कदापि न उक्तवान् यत् अस्मिन् जगति परस्परं द्वेषं कुरुत, विद्रोहं च कुर्वन्तु, अपितु अत्र प्रेम्णः अभ्यासं कुर्वन्तु इति स्पष्टतया उक्तवान्।
इह लोके यद् इतः नास्ति तत् प्रेम्णः । किं तत् प्रेम यत् स्वयमेव भवति? स्वाभाविकं करोति। प्रेम एव धर्मं स्वाभाविकं करोति। तस्य अभ्यासः अत्र भवेत्, तस्य अभ्यासः अत्र भवेत्। अत्र आरभ्यताम् ।
श्री बड़े महाराज श्री शुभ वचन हैं – इह से आरंभ। परन्तु आम्, एतावत् सावधानं भवतु यत् अत्रैव न समाप्तं भवति। यदि अत्र आरब्धः प्रेम अत्रैव समाप्तः भवति तर्हि प्रेम्णः अपि समाप्तिः भविष्यति, भवतः अपि समाप्तिः भविष्यति।
साधना इति किम् ? प्रेम इतः आरभ्यते परन्तु श्री राधारमणस्य चरणयोः समाप्तः भवति।
अस्मिन् प्रेमे कामस्य अपेक्षया पूजा भविष्यति। एतेन तस्य स्वाभाविकत्वं निर्णयः भविष्यति ।
कथा एव एकमात्रं माध्यमं यस्य माध्यमेन प्रथमं कृष्णस्य प्रेम्णि पतितुं शक्यते। अथ कथामृतम् ।
..परमराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ..