आप राधारमन जी का दर्शन करने जाओ, वहाँ पर बहुत सारे लोग होंगे, इधर-उधर एक दूसरे से बोल रहे होंगे उस समय आपकी बात दूसरी होगी और उसी समय आपकी नजर किसी ऐसे प्रेमी पर पड़े जो राधारमण जी में घुल सा गया हो। उसको देखते ही आपकी दृष्टि तुरंत परिवर्तित हो जाएगी, आपका अनुभव बदल जाएगा। आप प्रार्थना करोगे तो ठाकुरजी! हम भी ऐसे ही दर्शन कब करेंगे?
हम देखकर आए तो क्या देखा? यह भी ध्यान में नहीं कि पगड़ी कौन से रंग की है?
यह तो कोई-कोई है जो उसे दर्शन का आनंद ले लेता है। और उस दर्शन में छिपी पूरी लीला भी समझ लेता है। पगड़ी कैसे बंधी है, सिरपेच कैसा है।
आजकल कोई पगड़ी बांधता नहीं है। पहले कौन किस स्तर, स्वभाव, संबंध, व्यवहार उस हिसाब से पगड़ी बांधा जाता था। खास राजस्थान मे यह परंपरा है।
कन्या का पिता कौन है और वर का पिता कौन है पगड़ी से ही पुराने वर्ग के लोग पहचान लेते थे। पाग से पहचान लेते थे यह कन्या का पिता है वर का पिता है। दोनों की पगड़ी अलग प्रकार से बनती है। उसका भिन्न भाव है। एक परिश्रम की पगड़ी है, एक प्रदर्शन की पगड़ी है। इन दोनों में भी फर्क होता है। उत्सवों में जो पहनी जाती है वह प्रदर्शन की पगड़ी है और दूसरी कभी-कभी परिश्रम के लिए पगड़ी पहनी जाती है। पगड़ी का एक अर्थ जिम्मेदारी भी होता है।
ऐसे ही एक-एक वस्तु ठाकुरजी के श्रृंगार के भी उनकी सारी लीला रहस्य का उद्घाटन करते हैं। यह बंसी है कि वेणु है कि आकर्षिणी है।
कार्तिक की प्रतिपदा के दिन जो हार पहनते हैं वह नाभि तक आता है। हार घोंटू तक आएगा तो अलग दर्शन है। हार घुंघरु तक आएगा तो अलग दर्शन है। यह तो अनुभवी आदमी को पता है। अपने मन से नहीं ठाकुरजी का सिंगार होता। ठाकुरजी के मन से ठाकुरजी का श्रृंगार है। इसलिए
राधारमणजी की विधिवत व्यवस्था है। हम लोगों ने यही तो 500 वर्षों में इन्हेरीट किया है। सजा तो कोई भी लेता है पर वह पद्धति नहीं है।
भगवान मकराकृत कुंडल कब पहनेंगे और मयूरआकृत कुंडल कब पहनेंगे, यह दोनों में फर्क है। जब ठाकुरजी बंसी बजा रहे हो और प्रिया जी सुन रही हों तो ठाकुरजी मयूरआकृत कुंडल पहनते हैं। मछली के आकार का और जब प्रियाजी बंशी बजा रही हों और ठाकुरजी सुन रहे हों तो समझना आज ठाकुरजी मयूराकृत कुंडल पहने हैं। आज मोर की तरह उनके कान नृत्य कर रहे हैं।
अब उसके भीतर की और गुह्य लीलाएँ हैं।
ये सब अनुभव होने लगे तो दर्शन के रस आवेंगे। फिर कहाँ दर्शन दो मिनट में विश्राम हो पाएगा। जरा देखो तो आज ठाकुरजी की क्या लीला है। जरा पगड़ी इधर घूमी है तो कोई लीला है, सिरपेच उधर तिरछा है तो कोई लीला है। सिरपेच प्रियाजी की तरफ पूरा झुका है कि बीच में है कि दूसरी तरफ है।
कभी कभी ऐसा दर्शन होता है कि ठाकुर जी का मुकुट दूसरी तरफ झुकता है इसका मतलब आज कुछ मान लीला हो गयी है। प्रियाजी ने मान किया है किसी बात पर। और ठाकुरजी रस के उद्दीपन की भूमिका बना रहे हैं।
गोधूलि बेला में संध्या आरती के समय ठाकुर जी वेणु बजाते हैं, दिन में आकर्षिणी बजाते हैं रात्रि और प्रातः वंशी बजाते हैं। कभी कभी दिन में वंशी बजाएं तो समझ लेना मध्यान्ह लीला चल रही है।
यह जो उसके पीछे की भाव भंगिमा है यही दर्शन का स्वरूप है। आज ठाकुरजी की लकुटी कैसी है। दो लकुट का अर्थ अलग है। एक लकुट का अर्थ अलग है। उसमें भी नीचे वाली लकुट का अर्थ अलग है। अब यह तो धीरे-धीरे बात बनेगी। यह दर्शनों का स्वरुप है। जब देखो…
पाग टेढी सी धरी, वामे मोती लटकन
डोले ब्रज कुंजों में झूम के राधारमण।।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
The mind is everything. What you think, you become! The thoughts have a very important role in mental make-up. If you see something and keep on thinking about it, take it so seriously then it starts affecting your thinking, it has a direct influence on your mind and the mind starts getting moulded in that way!
If that be so then while enacting the role of the ‘Bhakta’, can’t Bhakti arise within our hearts? Why not? Of course!
We are all made of glass, we are not Bhakta! We are just enacting the role of a Bhakta. Go on acting, playing the role, perfecting your act, to tell you the truth, sometimes amidst the diamonds, even the finely cut glass passes off as one!
When the diamonds are being traded in bulk then it becomes difficult to segregate the bad one amongst the bulk of good ones and a shining piece of well-cut glass gets sold at the price of a diamond!
Please go on perfecting your acting skills to enact the role of a Bhakta, who knows, even we might pass off as one in the bag full of diamonds!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||