श्री राधारमणो विजयते||
बड़े-बड़े संतों ने यह बात कही है- कभी बहुत ज्यादा मन में कंफ्यूजन हो रहा हो कि क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए? कभी बहुत ज्यादा भ्रम हो क्या करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए तो संतो ने एक बात कही है,
ठाकुरजी के सामने इस श्लोक का अगर हम पाठ करें तो ठाकुरजी किसी न किसी रूप में आकर हमारा मार्गदर्शन करेंगे।
अगर दो चीज में भ्रम हो कि यह करें कि यह करें तो ठाकुरजी के सामने दो पर्ची लिखो- करें कि ना करें, और हाथ जोड़कर दोनों पर्ची घुमाकर ठाकुरजी के चरणों में रख दो। पर ईमानदारी रखना। और फिर ठाकुरजी के सामने बैठकर 11 बार गीता के इस श्लोक का पाठ करो-
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
Bhagavad Gita: Chapter 2, Verse 7
हे ठाकुरजी! मैं समझ नहीं कर पा रहा। शिष्यतेऽहम्॥ शिष्य की तरह आपसे पूछ रहा हूँ, आप मेरा मार्गदर्शन कीजिए। और पुजारी जी हो तो उनसे कह दो कि उठाकर पर्ची दे दे और फिर जो निकले उसका बिल्कुल भरोसे से पालन कर लेना। ।
मैं एक बात बिल्कुल सत्य कहता हूँ ठाकुरजी जरूरी नहीं आपके लिए जो सुखदायक हो वह काम करें पर भगवान कभी आपका अहित नहीं कर सकते।
ठाकुरजी जरूरी नहीं की सुख वाला काम करें कि दुख वाला काम करें। हो सकता है दुख वाला करें पर अहित वाला काम नहीं कर सकते। सदा हित विचारक हैं। सदा हित का ही स्वरूप मानते हैं।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
II Shree Radharamanno Vijayatey II
Sometimes when the mind is totally confused as to what to do and what not to do? When there is a sense of doubt prevailing and uncertainty plaguing the thinking then all the Saints just say one thing;
If we do the ‘paath’ of this shloka in front of Shree Thakurji then in some form or the other, He comes to guide us!
If there is a confusion between two things then keep two chits in front of Shree Thakurji surrendering at His Lotus Feet with both the options written in it. Be honest! Then sitting in front of Shree Thakurji repeat this shloka of the Gita 11 times.
‘Kaarpannyadoshopahatswabhaavaha: pruchhaami ttvam dharmasammodhachetaha:I Yachreyaha: syanischittam broohi ttanmey shishyastteham shaadhi maam ttvaam prapannam II
Bhagvadgita, Chapter 2, Verse 7.
Hey Thakurji! I am confused. I am your surrendered disciple and I beg you to kindly guide me. If the Pujari is there, ask him to pick up one chit and give it to you, then whatever is there follow it without any hesitation!
I would like to say this with sincereity that it is not necessary that Shree Thakurji will give you the easiest way out but He will never want anything that is unfavourable for you.
It is not necessary that Shree Thakurji will give you the easier option or the difficult one. It is quite possible that the tougher option comes out but it will not harm you in anyway. He always thinks what is in our ultimate good.
II Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj II
महान् साधवः एतत् उक्तवन्तः – किं भवन्तः कदापि किं कर्तव्यमिति अतीव भ्रमिताः भवन्ति? न कर्तव्यम्? यदा कदापि किं कर्तव्यं किं वा किं न कर्तव्यमिति बहु भ्रमः भवति तदा साधवः एकमेव उक्तवन्तः,
यदि वयं ठाकुरजी इत्यस्य पुरतः एतत् श्लोकं पठामः तर्हि ठाकुरजी केनचित् रूपेण वा अन्येन वा आगत्य अस्माकं मार्गदर्शनं करिष्यति।
यदि द्वयोः विषययोः भ्रमः भवति, इदम् अथवा तत् कर्तव्यम्, तर्हि ठाकुरजी इत्यस्य पुरतः स्लिपद्वयं लिखत – कर्तव्यं वा न कर्तव्यं वा, तथा च कृताञ्जलिं कृत्वा स्लिपद्वयं परिभ्रमयित्वा ठाकुरजीपादयोः स्थापयन्तु। परन्तु प्रामाणिकः भवतु। तथा च ततः ठाकुरजी इत्यस्य सम्मुखे उपविश्य गीतास्य एतत् श्लोकं ११ वारं पठन्तु-
कर्पन्यदोषोपहत्स्वभावः प्रिच्छामि त्वां धर्मसमुधचेतः।
च्च्च्रेयहस्य अनि ॥शय ब्रूही तन्मे सऽहं शाद्दी त्वान प्रपञ्चम् ।
भगवद्गीता: अध्याय 2, श्लोक 7
हे ठाकुरजी ! अहं न अवगन्तुं समर्थः अस्मि। वयं शिष्याः स्मः। शिष्यवत् त्वां पृच्छामि मार्गदर्शनं कुरु । यदि च त्वं पुरोहितः असि तर्हि तं स्लिप् दातुं प्रार्थय ततः यत् किमपि बहिः आगच्छति तत् अत्यन्तं आत्मविश्वासेन अनुसृत्य। , ९.
अहं एकं वस्तु सर्वथा सत्यं वदामि ठाकुरजी, भवतः कृते यत् किमपि सुखदं तत् कर्तुं आवश्यकं नास्ति, परन्तु ईश्वरः भवतः कदापि हानिं कर्तुं न शक्नोति।
ठाकुरजी, सुखदं कामं वा दुःखदं कार्यं वा कर्तुं न आवश्यकम्। किमपि दुःखदं कर्तुं शक्यते किन्तु भवन्तः किमपि हानिकारकं कर्तुं न शक्नुवन्ति। सदा स्वहितचिन्तकः। सदैव लाभरूपेण विश्वासं कुरुत।
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥