श्री राधारमणो विजयते
गुरुकृपा से दृष्टि की भी प्राप्ति होती है। एक छोटे से दृष्टांत से कहूँ; अदीक्षित होकर राधारमणजी का दर्शन करो और दीक्षित होकर राधारमणजी का दर्शन करो। पहले सबके दिखेंगे बाद में अपने दिखेंगे। ऐसा अपना अनुभव है। पहले सबके देखते हैं फिर अपने दिखते हैं।
वो जो रूहानियत है वो नजर आती है गुरुकृपा से। वो ये दृष्टि देता है कि कोई भी वस्तु साधारण नहीं है। ये असाधारणता जो है गुरुकृपा से प्राप्त होती है।
शास्त्र ने कहा कि गुरुकृपा से हमें विद्या की प्राप्ति होती है। गुरु शुश्रूश्रया विद्या।। विद्या और शिक्षा में फर्क होता है। जैसे आपको तैरना आता है यह विद्या है पर पूल में तैरना आता है कि नदी में तैरना आता है कि समुद्र में तैरना आता है। यह शिक्षा है।
तो गुरूकृपा से विद्या की भी प्राप्ति होती है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
By the divine grace of our Sadguru, we are blessed with a divine eyesight or Drishti. I will explain it through a simple example; Do the darshsan of Shree Radha Ramanji before initiation and after you are initiated! In the first instance, you will see what others see but in the second instance you only see for yourself when you develop an insight!
You will then be able to see the spiritual panorama or the soulfulness by Sadguru’s grace. He blesses you with such an eyesight when nothing seems ordinary to you anymore. This extra ordinary vision can only be obtained through Sadguru’s benevolence.
The scriptures say that one attains Vidya or Divine knowledge through Guru-Kripa. ‘Guru sushrushraya Vidya’|| There is a difference between Vidya and Shiksha! Like, if you know how to swim, this is Shiksha when you are able to swim in a pool or a river or the sea!
But by Guru-Kripa, you are blessed with Vidya which enables you to swim across this Bhavasagar!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
दर्शनं च गुरुप्रसादेन सिद्ध्यति। लघु उदाहरणेन भवद्भ्यः वदामि; दीक्षिते राधारमञ्जी द्रष्टा दीक्षिते राधारमञ्जी। प्रथमं सर्वेषां द्रक्ष्यसि पश्चात् भवतः द्रक्ष्यसि। एषः मम अनुभवः। प्रथमं वयं सर्वेषां पश्यामः ततः स्वस्य पश्यामः।
सा आध्यात्मिकता गुरुप्रसादेन दृश्यते। न किमपि साधारणं इति दर्शनं ददाति। एतत् असाधारणं गुरुप्रसादेन सिद्ध्यति।
गुरुप्रसादेन वयं ज्ञानं प्राप्नुमः इति श्रुतेः। गुरु शुश्रूश्रय विद्या। ज्ञाने शिक्षणे च भेदः अस्ति। यथा त्वं तरणं जानासि वा, एतत् ज्ञानं, परन्तु त्वं कुण्डे तरणं जानासि वा, नद्यां तरणं जानासि वा समुद्रे तरणं जानासि वा। एषा शिक्षा।
अतः गुरुप्रसादात् ज्ञानमपि लभते।
॥परमराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥