दान और भिक्षा दो अलग शब्द हैं। दान भिक्षा नहीं होता। भिक्षा शब्द अलग है, दान अलग है। भिक्षा हम जरूरत मंद व्यक्ति को देते हैं। उसमें भी समझना चाहिए। कई लोग पूछते हैं किसको दें? किसको न दें?
जो कुछ भी देने से संतुष्ट हो जाय, उसे सबकुछ देना चाहिए। आप दस रुपए दो और वो बोले- बाउ! 20 रुपया दो तो उस मत देना। फिर वो काम करे यहाँ क्यों लग रहा है? अगर बीस ही चाहिए तो परिश्रम कर मेहनत कर। 20 क्या, 200 भी कमा ले।
आपके कुछ भी देने से जो संतुष्ट हो जाय, उसको देने में कभी नहीं रोकना। उसको तो दो। क्योंकि जो सकता है उसकी ये परिस्थिति हो या उसने इस चीज का चुनाव कर लिया हो। बस कुछ भी लेकर भजन करता हो। कुछ भी।
कुछ भी देने से जो संतुष्ट हो वो भिक्षुक है। भिखारी अलग चीज होता है। भिखारी निगेटिव वर्ड है, भिक्षुक साधनामय शब्द है। बुद्ध अपने शिष्य को भिक्खु कहते हैं। उनके तो शिष्य ही भिक्षु हैं।
हमारे यहाँ कितने महापुरुष हैं जो केवल भिक्षा ले लेकर के उससे ही संतुष्ट होते हैं। कहते हैं श्री शुकदेव जी भी बस पाँच घरों में से भिक्षा लेते थे, सुदामा जी पाँच घरों की भिक्षा ग्रहण करते और दिनभर भजन करते।
भिक्षा अलग चीज है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।