श्री राधारमणो विजयते
शिष्यत्व का अर्थ क्या है? पहली बात शिष्य वही हो सकता है जो जिज्ञासु हो सकता है। जिज्ञासु होने का अर्थ है-
मेरे महाराज श्री जब कभी बाहर जाना होता तो अगर उनको प्यास लगती तो कहते कि जरा गिलास में पानी देना और जल पी लिया फिर कहते- एक काम करो 10-12 पानी की बोतल गाड़ी में रख दो।
पहले इतना सड़कों पर संसाधन नहीं होते थे। कहते- कहीं प्यास लग जाए तो पानी हो साथ में। किसी भी प्रकार से जरूरत पड़ जाए, बहुत तेज भूख भी लगी हो फिर भी अगर थोड़ा-थोड़ा जल लेते रहो तो शरीर को संबल बना रहता है। 5-7 बोतल जल रख लो।
प्रश्न और जिज्ञासा में यही अंतर होता है। जानने में और जिज्ञासा में यही अंतर होता है। प्रश्न करने वाला व्यक्ति उतना पानी लेगा जितनी उसकी प्यास है। मुझे एक गिलास पानी पीना है तो एक गिलास जल दे। पर जिज्ञासा में रहने वाला व्यक्ति गुरु महाराज की तरह 10 बोतल धरा लगा।
उस समय उत्पन्न हुई स्थाई इच्छा उसके लिए प्रधान नहीं है। जो सदा उसकी मांग है वह बनी हुई है। और एक शिष्य के भीतर सदा मांग कौन सी होनी चाहिए?
इस दुनिया में रहते हुए शिष्य के भीतर, क्योंकि पता है अभी प्यास बुझ जाएगी पर 1 घंटे बाद फिर से प्यास लगेगी तब पास में पानी होना चाहिए, चार घंटे बाद फिर प्यास लगेगी तो पानी होना चाहिए।
ऐसे ही इस भटकती दुनिया में एक साधक के मन में एक बात सदा बनी रहनी चाहिए और वो क्या है….
हम तुम्हारे थे प्रभुजी, हम तुम्हारे हैं
हम तुम्हारे ही रहेंगे ओ मेरे प्रियतम्…
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
II Shree Radharamanno Vijayatey II
What is the actual meaning of ‘Shishyatva’ or discipleship? First of all, the disciple has to be keen to learn or must be a ‘Jigyasu’! A ‘Jigyasu’ is –
My Maharajshri whenever he had to go out and if he would feel thirsty then he would say, just give me a glass of water and then he would say that keep 10/12 bottles in the car.
In those days, one would not find so many amenities on the way. He would say that if on the way I feel thirsty then atleast water will be there. Even if one is feeling hungry and the destination is still far away then a few sips of water will keep one going. Atleast keep 5/7 bottles of water.
This is the difference between a question and a ‘Jigyasa’. This is the difference between knowing or enquiry. The questioner will consume only that much as there is in the glass. If my thirst is only one glass of water then I will be satisfied with just one glass of water. But the ‘Jigyasu’ will get 10/12 bottles kept like Guru Maharaj!
The desire or curiosity which has cropped in the mind is not the only one question in his mind. Whatever has been the demand or enquiry continues to be there. What should be the constant question in the mind of the disciple?
For the disciple living in the world must have this constant thirst because he knows that it maybe the thirst is quenched now but after a while he will again become thirsty in an hour’s time, at that point he needs to have water handy or even after four hours the water must be available.
In the same way, in this wandering world, one question should always be in the mind of an aspirant and what is that…..
‘Hum tumharey tthey Prabhuji, hum tumharey hain,
Hum tumharey hee rahengey o merey priyatam…’
II Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj II
शिष्यत्वस्य कः अर्थः ? प्रथमं तु कौतुकं शिष्यः एव भवितुम् अर्हति । जिज्ञासुत्वस्य अर्थः- २.
यदा यदा मम महाराजश्रीः बहिः गन्तव्यः भवति स्म, यदि तस्य तृष्णा भवति स्म तर्हि सः मां एकं गिलासं जलं दातुम् आह तदा सः जलं पिबति स्म, तदा सः वदति स्म – एकं कार्यं कुरु, याने १०-१२ जलपुटकानि स्थापयन्तु।
पूर्वं मार्गेषु एतावन्तः संसाधनाः न आसन् । ते वदन्ति- यदि भवतः तृष्णा भवति तर्हि भवता सह जलं भवतु। यदि कथञ्चित् आवश्यकता उत्पद्यते, अत्यन्तं क्षुधार्तोऽपि यदि भवन्तः शनैः शनैः जलं पिबन्ति तर्हि शरीरं दृढं तिष्ठति। ५-७ पुटं जलं स्थापयन्तु ।
इति प्रश्नकौतुकयोः भेदः । इति ज्ञात्वा कौतुकयोः भेदः । प्रश्नं पृच्छन् तृष्णा यावद् जलं गृह्णीयात् । यदि अहं एकं गिलासं जलं पिबितुं इच्छामि तर्हि एकं गिलासं जलं ददातु। परन्तु जिज्ञासाया वसन् व्यक्तिः गुरुमहाराज इव १० शीशीः धारयितुं आरब्धवान् ।
तस्मिन् समये या स्थायिकामना उत्पन्ना तस्य महत्त्वं नास्ति । यत् तस्य सर्वदा आग्रहः आसीत् तत् एव तिष्ठति। शिष्यस्य च अन्तः नित्यं का आग्रहः भवेत् ?
इह लोके वसन् शिष्यान्तर्गतं यतो हि जानाति यत् इदानीं तृष्णा शाम्यति किन्तु एकघण्टानन्तरं पुनः तृष्णां अनुभविष्यति तदा समीपे जलं भवेत्, यदि चतुर्घण्टानन्तरं पुनः तृष्णां अनुभविष्यति तर्हि जलं भवेत् .
तथा च अस्मिन् भ्रमणशीललोके साधकस्य मनसि एकं वस्तु सर्वदा तिष्ठेत् किं च तत्….
वयं तव भगवन्, वयं तव
वयं भवतः एव तिष्ठामः, मम प्रिय…
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज॥