श्री राधारमणो विजयते||
एक उत्तम शिष्य का लक्षण क्या है?
एक उत्तम शिष्य का एक लक्षण होता है कि वो गुरु की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति में मतलब ऐसे तो गुरु कभी अनुपस्थित नहीं हो सकता। वो हर क्षण कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हमें, अगर आप कहीं चल रहे हो और किसी संत ने तुम्हें किसी कार्य के लिए रोका तो भी यही मानना चाहिए ‘मेरे ही गुरुजी इस संत के रूप में आकर मुझे सावधान कर रहे हैं।’
इसलिए मैनें कहा- गुरु की अनुपस्थिति तो सम्भव ही नहीं है और जिसने ये मान लिया कि गुरु अनुपस्थित भी हो सकता है तो अभी बहुत मेहनत की जरूरत है। इसलिए मैं सावधानी से कह रहा हूँ
गुरु की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति में मतलब वो फिजीकली सामने न हो, उनकी नजर हमपे न हो, हमसे दूर हो, विलग हो एक उत्तम शिष्य का लक्षण है उस समय वो और ज्यादा सावधान होता है। उस समय वो पक्का होता है।
क्योंकि अब वो गुरु की छाया में नहीं है, अब वो खुद गुरु की छाया है। इसमें फरक है। क्योंकि उसको देखकर उसके मुर्शिद को भी याद किया जाएगा, उसके ऊपरवाले को समझा जाएगा, उसके व्यवहार से उसके बादशाह को पहचाना जाएगा।
मैं बहुत सावधानी से ये बात कह रहा हूँ
गुरु की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति में थोड़ी बदमाशी भी कर लेनी चाहिए। चलता है। कोई समस्या नहीं। थोड़े असावधान भी हो सकते हो। अगर तुम दोनों का संबंध पक्का है तो कोई तीसरा बीच में नहीं आ सकता। थोड़ा रिलैक्स हो सकता है।
प्रत्यक्ष गुरु के सामने उम्दा शिष्य थोड़ा रिलैक्स भी हो सकता है। जैसे कोई तबला सीखने वाला हो और उसके गुरु उसको तबला सिखा रहे हों उससमय अगर वो भूल करे तो सुधार का अवसर देता है गुरु कि इसमें जो ताल लगाई वो थोड़ी स्लिप हो गई पर
भरी महफ़िल में जब तबलची ताल चूक देता है तब उसकी नहीं, उसके बादशाह की नाक कट जाती है, चूक गया मामला।
इसलिए एक उत्तम शिष्य का लक्षण होता है कि वो सद्गुरु की प्रत्यक्ष अनुपस्थिति में और ज्यादा सावधान हो जाता है। वही उत्तम शिष्य है।
चाटुकार को शिष्य नहीं कहते, गुलाम को शिष्य नहीं कहते। गुलाम दुनिया में पैसा से भी मिल सकते हैं, शिष्य नहीं मिल सकते।
उसकी अनुपस्थिति में वो सावधान है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
II Shree Radharamanno Vijayatey II
What are the characteristics of a perfect disciple?
As such the Guru can never be absent, at each and every moment in some form or the other he is there, say you are going somewhere and if a saint stops you for some work then please understand that your Guru has come in the form of the saint to caution you or protect you. That is why I said that the Guru can never be non existant. One characteristic of an ideal disciple is that he always realises the presence of his Master. If you don’t then you still have a long way to go and need to strive hard!
That is why I am saying this particularly to caution you! Say that the Guru is not physically present there, he can’t see you or is far away from where you are then an ideal disciple will become all the more careful. At that time his trust in his preceptor becomes firm because he might not be in the protection of his Guru but his faith turns him into a shadow or an image of his Master! There is a difference in this because by seeing him one will remember his Murshid, he will be the reflection of his Master and his behavior or mannerisms will be an introduction of his Badshah!
I’m making this statement very carefully and meaningfully.
You can take certain liberties in the physical presence of your Guru. It is acceptable! No problem with that. You may for that matter lower your guard a bit. If you and your Master share the Divine Bond, no one can come in between. You can relax a bit!
In the physical presence of the Master, an ideal disciple is free to relax a little. Say, some one is learning how to play the Tabla and his Guru is teaching him the nuances, if the disciple misses a beat the Guru can correct him immediately but if in a concert when the disciple is playing and if he misses a beat, the Guru is put to shame!
So, the ideal Shishya will be all the more careful and alert during the physical absence of the Master. He alone is a true disciple!
A cunning fellow can not become a disciple, a Ghulam or a mere servant is not a disciple. You can get a paid servant but to get an ideal disciple is very difficult! His actions in the absence of the Master prove his authenticity!
II Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj II
सत्शिष्यस्य किं लक्षणानि सन्ति ?
सत्शिष्यस्य एकं लक्षणं यत् सः गुरुस्य प्रत्यक्षाभावे जीवितुं शक्नोति, यस्य अर्थः अस्ति यत् गुरुः कदापि अनुपस्थितः न भवितुम् अर्हति । प्रतिक्षणं सः कुत्रचित् केनचित् रूपेण वा अन्येन वा उपस्थितः भवति, यदि भवान् कुत्रचित् गच्छन् अस्ति तथा च कश्चन साधुः भवन्तं केनचित् कार्येण निवारयति तर्हि भवन्तः अपि विश्वासं कुर्वन्तु यत् ‘मम स्वगुरुजी अस्य साधुरूपेण आगत्य मां सावधानं करोति।’ ‘ .
अत एव मया उक्तम् – गुरुः अनुपस्थितिः सम्भवः नास्ति तथा च यः स्वीकरोति यत् गुरुः अनुपस्थितः भवितुम् अर्हति, तस्य अद्यापि बहु परिश्रमस्य आवश्यकता वर्तते। अत एव अहं सावधानतया वदामि
गुरोः प्रत्यक्षाभावे सः शारीरिकरूपेण नास्ति, तस्य दृष्टिः अस्मासु नास्ति, सः अस्मात् दूरः अस्ति, सः विरक्तः इति अर्थः। तस्मिन् समये सः अधिकं सावधानः भवति इति सत्शिष्यस्य चिह्नम् अस्ति। तस्मिन् समये तस्य पुष्टिः भवति।
यतः इदानीं सः गुरोः छायायां नास्ति, अधुना सः गुरुस्य एव छाया अस्ति। अत्र भेदः । यतः तं दृष्ट्वा तस्य गुरुः अपि स्मर्यते, तस्य श्रेष्ठः ज्ञास्यति, तस्य राजा व्यवहारात् प्रत्यभिज्ञास्यति।
अतीव सावधानतया एतत् वदामि
साक्षात् गुरुणाभावे कस्मिंश्चित् दुष्टे प्रवर्तयेत्। गच्छामः। कापि समस्या न। भवन्तः किञ्चित् अप्रमादः अपि भवेयुः। यदि भवतः द्वयोः सम्बन्धः दृढः अस्ति तर्हि तयोः मध्ये कोऽपि तृतीयः व्यक्तिः आगन्तुं न शक्नोति। किञ्चित् आरामं कर्तुं शक्नोति।
सत्शिष्यः अपि प्रत्यक्षगुरुस्य पुरतः किञ्चित् आरामं कर्तुं शक्नोति। यथा, यदि कश्चन तबलाशिक्षणं कर्तुं प्रवृत्तः अस्ति तथा च तस्य आचार्यः तस्मै तबलां पाठयति तर्हि यदि सः त्रुटिं करोति तर्हि आचार्यः तस्मै अवसरं ददाति यत् सः तस्मिन् स्थापयति स्म यत् तालं किञ्चित् स्खलितं किन्तु
यदा तबलाचिः जनसङ्ख्यायुक्ते समागमे ताडनं त्यजति तदा सः न दुःखं प्राप्नोति अपितु तस्य राज्ञः नासिका, प्रकरणं चूकति।
अतः सद्शिष्यस्य लक्षणं यत् सः सद्गुरुस्य प्रत्यक्षाभावे अधिकं सावधानः भवति। सः श्रेष्ठः शिष्यः अस्ति।
सिकोफन् न शिष्य उच्यते, दासः शिष्यः न उच्यते। दासाः धनेन अपि जगति लभ्यन्ते, परन्तु शिष्याः न लभ्यन्ते।
तस्याभावे सा सावधाना भवति।
।। परमाराध्य: पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।।