||Shree Radharamanno Vijayatey||
In our lives, whether there is happiness or sorrow, whether we have wealth or are besotted with problems, what is going on? If somebody thinks that today he has earned ten crores of rupees then materialistically speaking he has indeed but from the scriptural view point, he has expended a part from the accumulated Punya or virtues!
In the world whether you have Sukh or Dukh, in both the cases you have spent from your accumulation of ‘Prarabdha’! When we face sorrow then we are expending from our accumulated balance of sins. In an animal’s life, there is no ‘Prarabdha’! The human life is given where you expend from your ‘Prarabdha’.
When the tiger kills a goat then it is not a crime because it is part of his life and it is the food! If you force the tiger to eat grass, it will die but the humans have both the options open to them.
Today, if you are honoured then you have spent out of your balance of Punya from your ‘Prarabdha’ and for any reason you face indignation, the balance reduces from the account of your accumulated sins. We come into this world carrying both the bags in our hands!
Now, which of the bags is heavier, our life moves accordingly. If the bag of sin is heavier then you will encounter difficulties or will face hardships. In between, you might taste a wee bit of happiness. If the bag of Punya is heavier, then you will lead a happy and a contented life. Here, in between a little bit or sorrow might just creep in for a very short while! In either case, you are expending out of your accumulated balance! Then, how does one earn?
Here, we are only talking of expenditure, therefore you need to think about it!
Please try to understand the spiritual concept behind it. What is this Katha for? Why do we do Bhakti? Why should we chant the Hari-Naam? The tiger cannot do Bhakti. Everybody is born in the same way, whether in a palace or on the pavement, but both go through different life experiences because of the baggage of their ‘Prarabdha’!
The Sukh and Dukh depend on the Karmas! ‘Goswamiji’ says; ‘Haani laabh Jeevan maran yash apyasha Bidhi haath’||
If you go one spending to the extent that the bags are empty then one needs to understand it! Depending on the present life, how much of Punya or Paap have you done, whether you will get a human birth or shall be born in the other ‘Yonis’! Like Bharat had to take birth as a deer! Even if there is a little bit of an error, you get a lower birth and with virtues you get a higher birth!
If you take the suggestion of Shrimad Bhagwat then in this human life, expend your accumulation of the ‘Prarabdha’ and earn the Hari-Naam! If you are able to earn enough in this way then you will be free of carrying the excess baggage birth after birth!
This earning of the Hari-Naam is creating an emergency fund! I have experienced this in my own life and am sure that even you might have experienced it that when the ‘Prarabdha’ is depleted and you face adversities in life, the Hari-Naam comes as a huge support to extricate you from the mess!
Not only during adversities but your earnings of Hari-Naam help you to digest the happiness very sanely! Sorrow, is still ok because it cleanses you! To be equanimous during happy days is a very difficult proposition!
To share the pain of others is Dharma but to be happy in others happiness is Param-Dharma! Which unfortunately, seems impossible!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
अस्माकं जीवने सुखं दुःखं वा अस्ति वा, धनं प्राप्नुमः वा दुःखं प्राप्नुमः वा, एतत् सर्वं किं भवति? यदि कश्चित् मन्यते यत् अद्य सः १० कोटिरूप्यकाणि अर्जितवान्, तर्हि तस्मिन् सति सः खलु अर्जितवान्, परन्तु यदि शास्त्रदृष्ट्या दृष्टः तर्हि अद्य सः स्वस्य दैवगुणं व्ययितवान्।
इह लोके सुखं वा दुःखं वा तन्त्रद्वये दैवं व्यय्यते । यदा वयं दुःखं प्राप्नुमः तदा वयं किं कुर्मः ? वयं दैवस्य भागं पापत्वेन व्यायामः। यतः पशुजीवने दैवं नास्ति । मनुष्यस्य जीवनं व्यतीतुं नियतम् अस्ति।
यदि सिंहः बकं हन्ति तर्हि तस्य अन्नत्वात् तस्य पक्षतः अपराधः नास्ति । यदि त्वं तं तृणं खादितुम् अददात् तर्हि सिंहः म्रियते, परन्तु मनुष्यस्य उभयस्य विकल्पः अस्ति ।
अद्यत्वे सत्कृतोऽपि भवतः दैवगुणानां केचन भागाः व्यतीताः यदि च कुत्रचित् अपमानितः तर्हि अद्य भवतः दैवस्य पापकर्मणां केचन भागाः व्यतीताः। उभयोः सामानम् अस्माभिः आनीतम्।
अधुना अस्माकं जीवनं तस्मिन् सामाने अस्माकं कः भागः बृहत्तरः इति अवलम्बते । यदि पापपुटं विशालं तर्हि प्रतिकूलपरिस्थितिजीवनं भवति। यस्मिन् वयं किञ्चित् सुखं प्राप्नुमः। यदि च सदाचारस्य पुटं विशालं तर्हि जीवनं सुखी भवति। तस्मिन् किञ्चित् दुःखम् अस्ति। परन्तु भवन्तः एतयोः विषययोः धनं व्यययन्ति। अथ किं अर्जनम् ?
एषः केवलं व्ययः एव । कृपया एतत् चिन्तयतु।
आध्यात्मिक अवधारणा अवगच्छन्तु। इयं कथा किमर्थम् ? इयं भक्तिः किमर्थम् ? किमर्थमिदं हरि नाम? सिंहः भक्तिं कर्तुं न शक्नोति। कुटीरे वा प्रासादे वा सर्वे समानरूपेण प्रसवम् कुर्वन्ति तथापि वयं दैवपुटं वहन्तः स्मः इति कारणेन जीवनं भिन्नम् अस्ति।
कर्मानुगुणं सुखं दुःखं च भवति। हानिः लाभः प्राणः मृत्युः यशः कुख्यातिः विधि हस्ताः | गोस्वामी जी अकथयत्।
वयं बहु व्ययितवन्तः, बहु व्ययितवन्तः, यदि वयं सम्पूर्णं पुटं रिक्तं कुर्मः तर्हि अस्माभिः अवगन्तुं भविष्यति। कियत् गुणं पापं च कृतं तदनुसारेण मानवजीवनं लभ्यते वा अवनतिं वा भविष्यति । यथा भारतं मृगस्य योनिं गन्तव्यं भवति। यदि एकं लघु वस्तु भवति तर्हि अधो योनिः ऊर्ध्वयोनिः अपि उपलभ्यते।
यदि भवान् भागवतस्य सुझावस्य अनुसरणं कर्तुम् इच्छति तर्हि मानवजीवने स्वस्य भाग्यं व्यतीतवान्, हरिनामं च अर्जयतु। यदि भवन्तः एतत् अर्जनं प्राप्नुवन्ति तर्हि पुनः पुनः पुटं वहितुं एषा व्यवस्था समाप्तं भविष्यति।
नामतः एतत् अर्जनं विशालः आपत्कालीनकोषः अस्ति। मया जीवने अनुभवितं यत् यदा दैवस्य समाप्तिः भवति, प्रतिकूलपरिस्थितयः च उत्पद्यन्ते तदा एषः भजनः महतीं सहायकं भवति ।
न केवलं दुःखे, भवतः नाम अर्जनं सुखे अपि सुखस्य पचने सहायकं भवति। दुःखम् अद्यापि ठीकम् अस्ति। सुखस्य त्राणम् अपि कठिनतरम् अस्ति।
परदुःखे दुःखिता धर्मः, परसुखे तु सुखी भवितुं परमधर्मः। यत् जगति केनापि न ज्ञायते।
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।।
हमारे जीवन में चाहे सुख है, चाहे दुख है, चाहे संपत्ति मिल रही हो, चाहे विपत्ति मिल रही हो, यह सब में क्या हो रहा है? अगर कोई सोचे आज मैं 10 करोड़ रूपया कमाया है तो ऐसे में तो सच में उसने कमाए पर अगर शास्त्र की दृष्टि से देखा जाए तो आज उसने अपने प्रारब्ध के पुण्य को खर्च किया।
इस संसार में चाहे सुख होता है चाहे दुख होता है दोनों व्यवस्था में प्रारब्ध खर्च होता है। दुख भी जब होता है तो हम क्या कर रहे हैं हमारे प्रारब्ध का पाप कर्म का जो हिस्सा है वह खर्च कर रहे हैं। क्योंकि पशु के जीवन में कोई प्रारब्ध नहीं है। मनुष्य का जीवन प्रारब्ध को खर्च करने के लिए होता है।
शेर अगर कोई बकरी मारता है तो उसका कोई अपराध नहीं क्योंकि वह उसका आहार है। अगर उसको घास खाने में लगा दोगे तो शेर मर जाएगा पर मनुष्य के पास दोनों चीजों का चुनाव है।
अगर आज आपका सम्मान भी हुआ तो आपने अपने प्रारब्ध के पुण्य में से कुछ हिस्सों को खर्च किया और अगर आपका अपमान भी कहीं हुआ तो आज आपने अपने प्रारब्ध के पाप कर्म से कुछ हिस्सों को समाप्त किया। यह दोनों का बैगेज हम लेकर आए हैं।
अब उस बैगेज में कौन सा हिस्सा हमारा बड़ा है उसी हिसाब से हमारा जीवन है। पाप क्रम का बैग बड़ा है तो विपरीत परिस्थितियों का जीवन है। जिसमें कुछ-कुछ सुख मिल रहा है। और अगर पुण्य कर्म का बैग बड़ा है तो सुखमय जीवन है। उसमें कुछ-कुछ दुख आ रहा है। पर यह तो दोनों चीज में खर्चा ही कर रहे हो। तो फिर कमाई क्या हो रही है?
यह तो खर्चा ही हो रहा है। इस पर आप विचार करिए।
स्पिरिचुअल कॉन्सेप्ट समझिएगा। यह कथा क्यों है? यह भक्ति क्यों है? यह हरिनाम क्यों है? शेर तो भक्ति नहीं कर सकता। एक ही पद्धति से सब जन्म ले रहे हैं चाहे झोंपड़ी में चाहे महल में, जीवन फिर भी अलग है क्योंकि हम प्रारब्ध का बैग लेकर आ रहे हैं।
कर्म के अनुसार सुख और दुख है। हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ।। गोस्वामी जी ने कहा है।
हमने खूब खर्च किया, खूब खर्च किया अगर पूरा बैग खाली कर गए तो समझना पड़ेगा। कितना पुण्य कितना पाप किया उसके अनुसार मानव जीवन प्राप्त होगा या अधो। जैसे भरत को हिरण की योनि में जाना पड़ता है। एक थोड़ी सी बात हो जाए तो अधो योनि भी मिलती है और ऊर्ध्व योनि भी मिलती है।
अगर भागवत का सुझाव मानना हो तो मनुष्य जीवन में प्रारब्ध का खर्चा करिए और हरिनाम की कमाई करिए। अगर यह कमाई आपके पास हो गई तो यह जो बार-बार बैग ढोने वाला सिस्टम है यह समाप्त हो जाएगा।
यह जो नाम की कमाई है यह बड़ा भारी इमरजेंसी फंड है। मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है आप सभी कर लेना, जब प्रारब्ध समाप्त हो जाता है और विपरीत परिस्थितियाँ होती हैं उस समय यह भजन बहुत बड़ी सहायता के रूप में साथ खड़ा होता है।
केवल दुख में ही नहीं, आपके नाम की कमाई सुख में भी सुख को पचाने में सहायता करती है। दुख तो फिर भी ठीक है। सुख बचाना और भी कठिन है।
दूसरे के दुख में दुखी होना धर्म है पर दूसरे के सुख में सुखी होना परम धर्म है। जो दुनिया में किसी से हो नहीं पता है।
॥परमाराध्य पूज्य श्रीसद्गुरु भगवान जु॥