श्री राधारमणो विजयते
हम अपने जीवन में से जितना व्यर्थ निकालते जाएंगे हमारे विचार में भी जीवन ऐसा चलता है हम सोचते हैं जीवन में जितना जोड़ते चले जाएंगे उतना अच्छा होगा और हम जोड़ते ही चले जा रहे हैं अच्छा कुछ हो नहीं रहा। असल बात तो ये है हम अपने जीवन में से कितना निकालते चले जाय।
जैसे एक पत्थर से मूर्तिकार टुकड़ो को निकालता चला जाता है और एक दिन वही पत्थर सुन्दर मूर्ति बनकरके अवस्थित होता है। ऐसे ही आप भी विचार करो अपनी ज्ञान की हथौड़ी लेकर विवेक की टांसी लेकर विचार करो मैनें जीवन में क्या क्या व्यर्थ रखा है?
जिसको देखो उसी को मन में जगह दे दिया है सड़क चलते सभी आदमी सीधा मन में ही घुसता है। मन है या कोई डस्टबिन है ? हम व्यर्थ का जितना निकालते चले जाएंगे पता चलेगा जीवन उतना स्वस्थ्य है उतना प्रसन्न है उतना आनन्दित है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
We consciously try and remove all that is negative or bad from our minds, our lives also run the same way but we think that the more we keep on adding it will turn out to be beneficial and with this mindset we go on adding but nothing good results. In fact it is the other way round and it depends on how much are we able to remove or discard from our life!
Just like a sculptor, who goes on chiseling the block and finally shapes it into a beautiful idol. You too need to become a sculptor with Gyana or knowledge being the hammer and Vivek or discrimination being the chisel just sit down and contemplate what all unwanted have I collected in life?
You see some one or something and straight away accomdate it in your mind, if I may say that you see some one on the road and instantly give him/her place in your mind! After all is it your mind or a dust bin? The amount of unnecessary things you keep on clearing or removing, you will realize that that your life becomes more and more healthy, happy and joyous!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
वयं यथा यथा अस्माकं जीवनात् अपशिष्टं दूरीकरोमः तथा तथा जीवने अधिकं परिवर्तनं कुर्मः, जीवनं अस्माकं विचारेषु एतादृशं कार्यं करोति, वयं चिन्तयामः यत् वयं यथा यथा जीवनं वर्धयामः तथा तथा उत्तमं भविष्यति तथा च यथा यथा वयं योजयामः तथा तथा किमपि न भद्रं भवति। वास्तविकं वस्तु अस्ति यत् अस्माभिः अस्माकं जीवनात् कियत् बहिः निष्कासितव्यम्।
यथा शिल्पकारः शिलातः खण्डान् अपसारयति तथा च एकस्मिन् दिने स एव शिला सुन्दरप्रतिमारूपेण परिणमति। तथा त्वमपि चिन्तयितव्यं, स्वज्ञानस्य मुद्गरं गृहीत्वा प्रज्ञाक्रीडां गृहीत्वा चिन्तयितव्यं, किं मया जीवने वृथा स्थापितं?
यं पश्यसि, तस्य मनसि स्थानं दत्तवान्; मार्गे गच्छन् प्रत्येकं व्यक्तिः प्रत्यक्षतया भवतः मनसि प्रविशति। भवतः मनः अस्ति वा कचराशयः अस्ति वा ? यथा यथा वयं सर्वाणि अपशिष्टानि निष्कासयामः तथा तथा जीवनं स्वस्थं सुखदं च इति ज्ञास्यामः।
..परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज..