सत्संग कैसे होता है? इन पद्धतियों से सत्संग होता है।
सबसे पहले स्मरण से होता है। कहीं भी है आज उन्होंने याद किया। उस दिन समझ लेना आज बात बन गई। आज उसने याद किया। आप बोलोगे याद करने से क्या होता है?
कछुआ अपने अंडे रेती में देता है और खुद पानी में रहता है। केवल उस अंडे का स्मरण करता रहता हैऔर उसके अंडे पक जाते हैं। स्मरण ही प्रभाव डालता है। जीवन में स्मरण से कृपा की अनुभूति होती है। हम कभी भगवान का स्मरण करें तो यह रोज कर सकते हैं पर भगवान कभी हमको स्मरण करें तो जीवन में भागवत कथा होती है।
गुरुकृपा स्मरण से घटित होती है।
गुरुकृपा दृष्टि से घटित होती है। मिले नहीं, बातचीत भी नहीं हुई बस नजर पड़ गई। मछली अपने अंडे नीचे पानी में नीचे देती है पर थोड़ी थोड़ी देर में उसको देखती रहती है और अंडे पक जाते हैं। बस केवल दृष्टि पड़ी। एक संत की केवल दृष्टि तुम पर टिकी हो उसके लिए भी एक बहुत बड़े संस्कार की भूमिका बनती है।
आपकी श्रद्धा आपकी दृष्टि से पता चलती है। आपकी रुचि भी आपकी दृष्टि से पता चलती है। किसी को देखो तो पहले ही पता चल जाता है ही इज् एक्सट्रीमली अन्इंटरेस्टेड। पिताजी महाराज कहते- कथा में दो तरह के लोग आते हैं एक होते हैं इंस्पायरिंग फेसफेस और एक एक्सपायरिंग फेस।
श्रद्धा एक्शन में नहीं होती, श्रद्धा दृष्टि होती है। आंख बता देती है। और आपकी अगर दृष्टि सुदृढ़ हो तो जब सद्गुरु की दृष्टि आप पर पड़ती है तो बात बन जाती है।
स्मरण से कृपा होती है। दृष्टि से कृपा होती है। शब्द से कृपा होती है। जब वह कुछ कह दे आपसे।
कृपा स्पर्श से होती है। कुछ भी हो ठाकुरजी को स्पर्श करा दो प्रसाद हो जाता है। स्पर्श उस डिविनिटी को स्टैब्लिश करती है। अनुभव में ले आती है। जैसे मोरनी अपने अंडे पर बैठी रहती है और उसके स्पर्श से अंडे पक जाते हैं ऐसे ही कभी-कभी संत का स्पर्श ही जीवन में एक अद्भुत परिणाम को प्रकाशित करता है।
स्मरण से, दृष्टि से, शब्द से और स्पर्श से इन चारों से कृपा की अनुभूति होती है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
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|| Shree Radharamanno Vijayatey ||
How does one do ‘Satsang’? There are certain ways of doing it.
First of all, you can do it through ‘Smaran’ or remembrance. Wherever you maybe, there is a constant remembrance. This means that you are inching closer to your goal. Today, He has remembered me! You may ask that what happens by remembrance?
The tortoise lays the eggs in the sand on the sea shore whereas it stays in the water. It keeps on thinking about the eggs constantly and they hatch! This goes on to prove the efficacy of constant remembrance. You shall experience the divinity of grace through ‘Smaran’. If we remember the Divine, we can do it every day till it becomes a habit but when the Divine remembers us then we are blessed with the ‘Bhagwat Katha’ in life.
The grace of the Guru flows through ‘Smaran’. You haven’t met, nor have exchanged a word but the Master just looked at you. The fish lays its eggs deep in the sea and keeps on seeing them from time to time, this hatches the eggs. Just a mere glance is enough! One needs a very strong foundation of virtue for the saint to see him/her even for a moment!
Your faith can be seen in your eyes. Your eyes even reflect your nature. When you observe any individual carefully you can make out whether the person is interested or uninterested. ‘Pitashri Maharaj’ used to say, ‘Two types of people come in the Katha, one with an inspiring face and the other with an expiring face’.
You cannot enact faith; it reflects through your eyes. Your eyes reveal everything. If your vision is firm then the moment the ‘Sadguru’ sees you, the goal is achieved.
By ‘Smaran’ you attain grace. By the divine affectionate glance, you are showered with grace. The divine word blesses you when the Master utters something!
One can receive grace through the divine touch. Whatever you have, just touch it to ‘Shree Thakurji’ and it becomes Prasad. The touch establishes the Divinity! You then experience it. Like the Peahen sits on its eggs and they are hatched, similarly the divine touch of a Saint can result in some amazing experiences in one’s life.
By ‘Smaran’, through a divine glance, by the divine word and the divine touch we can experience grace in our lives!
|| Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj ||
श्री पुण्डरीक जी सूत्र (१६-०६-२०२३)
कथं सत्संगः भवति ? एतेषां पद्धतीनां माध्यमेन सत्संगः भवति।
प्रथमं स्मरणेन भवति। सः अद्य यत्र यत्र अस्ति तत्र तत्र स्मरति स्म। तस्य दिवसस्य अवगमनं अद्यत्वे विषयः अभवत्। अद्य सः स्मरति स्म। स्मरणेन किं भवति इति वदिष्यसि ?
कच्छपः वालुकायाम् अण्डानि दत्त्वा जले एव निवसति । केवलं स्मर्यते यत् अण्डं तस्य अण्डानि च पच्यन्ते। स्मरणं केवलं प्रभावं करोति। जीवने स्मरणेन अनुग्रहस्य भावः प्राप्यते। यदि वयं कदापि ईश्वरं स्मरामः तर्हि नित्यमेव एतत् कर्तुं शक्नुमः, परन्तु यदि ईश्वरः कदापि अस्मान् स्मरति तर्हि जीवने भागवतकथा अस्ति।
गुरुकृपा स्मरणद्वारा भवति।
गुरुकृपा दर्शना सह भवति। न मिलितवान्, न अपि सम्भाषितवान्, केवलं दृष्टवान्। मत्स्यः जले अण्डानि स्थापयति, परन्तु किञ्चित् कालानन्तरं अण्डानि पक्वानि भवन्ति इति पश्यति । केवलं दृष्टिः आसीत्। यस्य साधुः केवलं त्वयि निहितः अस्ति तस्य कृते महान् संस्कारः भूमिकां निर्वहति।
भवतः श्रद्धा भवतः दर्शनेन ज्ञायते। भवतः रुचिः अपि भवतः दृष्ट्या प्रकाश्यते। यदि भवन्तः कञ्चित् पश्यन्ति तर्हि भवन्तः पूर्वमेव ज्ञातुं शक्नुवन्ति यत् सः अत्यन्तं अरुचिकरः अस्ति । पिता महाराजः कथयति- कथायां द्विविधाः जनाः सन्ति, एकं प्रेरणादायकं मुखं अपरं च समाप्तं मुखम्।
श्रद्धा न कर्मणि, श्रद्धा दृष्टिः। चक्षुः कथयति। यदि च भवतः दृष्टिः दृढा भवति तर्हि यदा सद्गुरुदृष्टिः भवतः उपरि पतति तदा तत् विषयः भवति।
स्मरणं अनुग्रहं जनयति। तत्र प्रसादः दृश्यते। शब्दाः दयालुः भवन्ति। यदा सः भवन्तं किमपि वदति
दयालुता स्पर्शद्वारा आगच्छति। यत्किमपि भवतु, ठाकुरजीं स्पृशन्तु प्रसादः भवति। स्पर्शः तत् दिव्यं स्थिरं करोति। सः भवन्तं अनुभवे आनयति। यथा मयूरः अण्डे उपविष्टः, अण्डानि च तस्य स्पर्शेन पचन्ति, तथैव कदाचित् साधुस्य स्पर्शः जीवने अद्भुतं परिणामं प्रकाशयति।
स्मरणेन दर्शनेन वाक्स्पर्शात् चत्वारः अपि प्रसादभावं ददति।
परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।