श्री राधारमणो विजयते
संकल्प उसे नहीं कहा जाता जिसमे विकल्प होता है, संकल्प तभी बनता है जब उसमें कब कोई विकल्प नहीं होता। मतलब कोई और दरवाजा ही नहीं है। दरवाजा एक ही है-
श्रीराधारमण का चरणार्विंद।।
और इस प्रकार का संकल्प विश्वास से बनता है। विश्वास हो जाता है कि अब ठाकुर हैं तो किस बात की चिंता। किस बात के पीछे हम पड़े।
यही बात भागवत जी के दूसरे श्लोक में कही गई है-
धर्मः प्रोज्झित कैत्तवोत् परमो…… शुश्रु सुभिस्तक्षणात्।।
चिंता मत करो। तुम बस संकल्प करो ठाकुर जी की प्राप्ति का। संकल्प करो कि हम भागवत जी श्रवण करें। संकल्प करते ही बल्कि वह तुम्हारी क्रिया में नहीं आया, अगर संकल्प भी कर लिया तो उसी क्षण तुमको गोविंद की प्राप्ति हो जाएगी।
तत् क्षणात्।। एक भी क्षण नहीं। कल नहीं परसों नहीं कोई समय नहीं। उसी क्षण श्रीगोविंद की प्राप्ति हो जाएगी।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
When there is an option or a ‘Vikalpa’ it is not ‘Sankalpa’ or resolve, ‘Sankalpa’ is when there is no ‘Vikalpa’! In other words, when there is no exit or doorway. There is only one door and i.e.
‘Dharmaha projhhit kaittavotta paramo……..sushru subhistatkshannatt’||
Don’t worry, just do the Sankalpa of attaining God! Resolve that I will hear the Bhagwat Katha. The moment you decide or resolve, even though you haven’t acted upon it, the moment you make up your mind, you will attain Shree Govind!
‘Tatt kshannat’. Without any delay, instantly! Not later or tomorrow or the day dayafter, at that very moment. You will attain Shree Govind then and there!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
संकल्पः न उच्यते यस्य विकल्पः अस्ति, संकल्पः तदा एव भवति यदा तस्मिन् विकल्पः नास्ति। अन्यद्वारं नास्ति इत्यर्थः । एकमेव द्वारं- .
श्रीराधरमण का चरणारविन्द।
श्रद्धया च एषः प्रकारः संकल्पः क्रियते। इदानीं सः ठाकुरः अस्ति इति विश्वासः अस्ति अतः किं चिन्ता कर्तव्या अस्ति। वयं किं पश्चात् स्मः ?
भागवत जी- द्वितीय श्लोके अपि तदेव उक्तम् अस्ति।
धर्मः प्रोज्झितकैतवोत्र परमोनिर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् |
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैैरीश्वरः
सद्योह्रद्यवरुध्यतेत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्|
चिंता मास्तु। त्वं केवल एवं संकल्पं पकरोषि। भागवत जी शृणुम इति संकल्पं कुरुत। अपितु संकल्पं कृत्वा एव कर्मणि न आगच्छति, संकल्पं कृत्वा अपि तस्मिन् एव क्षणे गोविन्दं प्राप्स्यसि।
तत्क्षणम् । न एकमपि क्षणम्। न श्वः, न श्वः परदिनः, न कश्चित् कालः। तस्मिन् एव क्षणे श्री गोविन्दः प्राप्तः भविष्यति।
॥परमराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥