श्री राधारमणो विजयते
गुरु का संग ही व्यक्ति को पूर्ण बना देता है। जैसे अग्नि के ऊपर रखा चावल स्वयं सिद्ध हो जाता है शुद्ध करके चावल रखो वो सिद्ध हो जाता है। ऐसे ही गुरु की संगति के प्रभाव से शिष्य सिद्ध हो जाता है।
जिस क्षण शिष्य स्निग्ध हुआ उस क्षण गुरु उसपर मुग्ध हुआ। और जिस क्षण गुरु शिष्य पर मुग्ध हुआ उस दिन सारा माया का संसार विदग्ध हो गया और उसके हृदय में रघुनाथ के प्रेम का दग्ध का प्राकट्य हो गया। बस तुम्हारा स्निग्ध होना जरूरी है। (स्निग्ध होने का मतलब सहज, पिघलना)
शिष्य स्निग्ध हुआ तो गुरु मुग्ध हुआ। स्निग्ध शिष्य पर ही गुरु मुग्ध हुआ करता है। रघुनाथ इतने स्निग्ध हैं कि विश्वामित्र उनपर मुग्ध हो गए।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
The company or Sanga of the Guru fulfils the person. Just like the cleaned or purified rice kept on the fire becomes Siddha or soft by itself. Similarly, just in the divine company of the Sadguru, the disciple too becomes Siddha!
The moment the disciple becomes soft or tender or ‘Snigdha’, that very moment the Sadguru becomes ‘Mugdha’ or infatuated. The moment the Guru is infatuated by his disciple, the world of Maya is burnt to ashes and the flame of longing for Shree Raghunath is ignited in his heart. Your becoming tender is very important. (The meaning of Snigdha is to become simple or to melt).
The moment the disciple melts, he attracts his Guru. The Sadguru is infatuated only by the simple and surrendered disciple. Shree Raghunath is so devoted or surrendered that Shri Vishwamitra instantly is infatuated by Him!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||