
श्री राधारमणो विजयते||
गुरु कैसा होना चाहिए? पहली बात ऐसे हो कि मूल की बात बताए, डिटेल की बात ना बताए। दूसरी बात आचरण की उसके जीवन में खूब विशेष खूब परिपक्व प्रधानता हो। तीसरी बात मैं आपसे कहूँ- वो स्वयं अव्वल दर्जे का शिष्य हो
अगर वह स्वयं शिष्य नहीं है तो गुरु नहीं हो सकता। अगर स्वयं चेला पक्का नहीं है तो उसके भीतर गुरुत्व की जागृति नहीं हो सकती। आचरण की प्रधानता हो उसके भीतर, तत्वदर्शी भी हो पर
कई-कई लोग होते हैं उनसे पूछो आपके गुरु जी कौन हैं? तो बोलते हैं मेरे तो साक्षात कृष्ण ही गुरु हैं। स्वयं महाप्रभु जी स्वयं वल्लभ महाप्रभु जी गौरांग महाप्रभु जी आकर मुझसे कहते हैं कि आज से तू हमारा शिष्य है। इन सब चीजों से बचने का प्रयास करना चाहिए। जिस स्वरुप में गुरु की महिमा परंपरागत पद्धति से स्वीकार की गई है परिपक्व रूप से उसके चरणों में शरणागत होना पड़ेगा।
बिना पक्का चेला बने कोई कुछ नहीं कर पाया। श्रीमन महाप्रभु जी स्वयं जाकर केशव भारती जी से ईश्वर पुरी जी से कहकर शरणागत होते हैं दीक्षा ग्रहण करते हैं।
यह तीसरी बात बड़ी महत्वपूर्ण है।
अगर उसके भीतर शिष्यत्व नहीं है तो वह आपके शिष्यत्व को भी नहीं समझ सकता।
जैसे कहते हैं जब तक कोई मैया बने नहीं तब वह दूसरी मैया को नहीं समझ सकती। सही बात कहूँ, जिसमें शिष्यत्व है वही किसी के शिष्यत्व को गहराई को समझ सकता है। उसी के भीतर उसका आभास उसका अनुपात प्राप्त होता है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
II Shree Radharamanno Vijayatey II
What are the characteristics of a Guru? Firstly, he should be able to teach the very basics or the intricacies not indulging in unnecessary details. The second is his behaviour or character should be impeccable. The third thing I would like to share is that he himself should be a perfect disciple.
If he is not a distinguished disciple, he cannot be a Guru! Unless, he has not imbibed the values of being an able disciple, the ‘Gurutva’ will not blossom in him.
His character and actions need to be spotless, he should be the knower of ‘Tatva’, but –
There are many people if you ask them who is your Guru? They say that Lord Krishna himself is my Guru. Mahaprabhu Shree Vallabh, Shree Gauranga Mahaprabhu come to me and accept me as their disciple. Please try to protect yourself from these fallacies. The way in which the glory of the Guru has been accepted traditionally, you will have to surrender yourself unconditionally at their divine lotus feet!
Without becoming a perfect disciple, nobody could achieve anything! Shreemann Mahaprabhuji himself went to Shree Keshav Bharatiji and Shree Eashwar Puriji, surrendered and got initiated by them.
This third point is very important.
If he himself lacks in discipleship then he cannot understand the disciple seated in you!
Like they say that until and unless you don’t give birth to a baby, one cannot understand what it means to be a mother. To tell you the truth, the one who is a true disciple in the purest sense, only then can he measure the discipleship in others. Only he can feel the depth and gravity of the disciple!
II Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj II
गुरुः कीदृशः भवेत् ? प्रथमं तादृशं भवेत् यत् मूलभूतं वक्तव्यं न तु विवरणम्। द्वितीयं तस्य जीवने आचरणस्य अतीव अतीव प्रौढं प्रधानता भवेत् । तृतीयं वक्तुम् इच्छामि यत् सः स्वयं प्रथमश्रेणी शिष्यः अस्ति।
सः गुरुः भवितुम् न शक्नोति यदि स्वयं शिष्यः नास्ति। यदि शिष्यः एव निश्चितः नास्ति तर्हि तस्य अन्तः गुरुत्वाकर्षणं जागर्तुं न शक्यते। तस्य अन्तः आचरणस्य प्राधान्यं भवेत्, परन्तु सः दार्शनिकः अपि भवेत्।
बहवः जनाः सन्ति, तान् पृच्छतु भवतः गुरुः कोऽस्ति ? अतः कृष्णः मम वास्तविकः गुरुः इति वदन्ति। महाप्रभु जी स्वयं, वल्लभ महाप्रभु जी गौरंग महाप्रभु जी आकर बताइए कि आज से आप हमारे शिष्य। एतानि सर्वाणि परिहर्तुं प्रयतेत । पारम्परिकरूपेण यस्मिन् रूपेण तस्य महिमा स्वीकृता अस्ति तस्मिन् रूपे अस्माभिः गुरुचरणयोः प्रौढतया आत्मसमर्पणं कर्तव्यं भविष्यति।
न कश्चित् कट्टरशिष्यः न भूत्वा किमपि कर्तुं शक्नोति स्म । श्रीमान महाप्रभु जी स्वयं जाकर केशव भारती जी को ईश्वर पुरी जी से बात करने के लिए कहते हुए आत्मसमर्पण कर दीक्षा लेते हैं।
एतत् तृतीयं वस्तु अतीव महत्त्वपूर्णम् अस्ति।
यदि तस्य अन्तः शिष्यत्वं नास्ति तर्हि सः भवतः शिष्यत्वं अपि अवगन्तुं न शक्नोति।
यथोक्तं यावत् एकः मातृत्वं न भवति तावत् सा अन्यां मातरं न अवगन्तुं शक्नोति। सत्यं वक्तुं शक्यते यत् यस्य शिष्यत्वं भवति सः एव कस्यचित् शिष्यत्वस्य गभीरताम् अवगन्तुं शक्नोति। तदन्तर्गतं तस्य प्रतिबिम्बं तस्य अनुपातं च प्राप्नोति।
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥
