अगर आपको वृंदावन वास करना है स्थाई ब्रजवास करना है, इस रस और भाव की युक्ति का आनंद लेना है तो उसके लिए आचरण करना पड़ेगा।
उसमें सबसे पहला नियम है जीव को हिंसा का त्याग करना पड़ेगा। हिंसा शब्द बहुत बड़ा है। गोस्वामी जी ने कहा- पर पीड़ा सम नहि अधमाई।।
सबसे बड़ी हिंसा परपीड़ा ही है। मैं निवेदन करूँ, हाथ पाँव से इतनी हिंसा नहीं होती, मुख से जितनी हिंसा होती है। अगर ब्रजवास करना है तो प्रयास हो सबसे पहले कि हमारे द्वारा किसी को पीड़ा न हो। हिंसा का परित्याग करना पड़ेगा। और हिंसा को बहुत अच्छी तरह समझना पड़ेगा।
हिंसा को केवल हम मारा काटी तक उसको सीमित न रखें। जिस क्षण जीव निराभिमान हो जाता है उस क्षण उसके भीतर से हिंसा स्वयं परित्याग कर देती है। निराभिमानता उसे हिंसा से मुक्त करती है, उससे हिंसा नहीं करा सकती।
॥परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
If you want to live in Vrindavan or permanently reside in Braj to experience the divine bliss of this Bhava and union with the universal spirit then you will have to behave and live accordingly!
The first rule is that the person has to shun violence in any form. ‘Hinsa’ or violence has many aspects. ‘Goswamiji’ says; ‘Para peeda sama nahi adhamayi||’
The gravest form of violence is to hurt another person in any way. I would very humbly like to say that the violence done through words or speech is far greater than what is done physically! If you want a permanent address in Braj then ensure that you don’t hurt anyone in any way! You will have to shun violence totally! For this, you need to understand the exact purport of violence!
Please do not restrict violence to hurt anyone physically. The moment the Jeeva becomes devoid of ego, the violence automatically is removed! To become free of pride is being free of violence because then violence takes flight!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
यदि वृन्दावने निवासं कर्तुम् इच्छसि, स्थायी ब्रज्वासं कर्तुम् इच्छसि, अस्य रसस्य भावस्य च युक्तिं भोक्तुं इच्छसि, तर्हि तदर्थं व्यवहारः कर्तव्यः।
तस्मिन् प्रथमः नियमः अस्ति यत् जीवस्य हिंसायाः त्यागः कर्तव्यः अस्ति । हिंसाशब्दः विशालः अस्ति। गोस्वामी जी उवाच – परन्तु पीडा अर्धहृदयवत् न भवति।
महती हिंसा तु वेदना एव। प्रार्थयामि, हस्तपादयोः तावत् हिंसा न भवति, यथा मुखेन हिंसा भवति। यदि ब्रजवासं कर्तुम् इच्छसि तर्हि प्रथमं प्रयतस्व यत् अस्माभिः कोऽपि आहतः न भवेत्। हिंसा परित्यक्तव्या भवति। हिंसा च अतीव सम्यक् अवगन्तुं भवति।
हिंसां केवलं वधं यावत् सीमितं मा कुरुत। यस्मिन् क्षणे प्राणी अभिमानहीनः भवति, तस्मिन् क्षणे आत्मनः हिंसा तं त्यजति। विनयः तं हिंसातः मुक्तं करोति, हिंसां कर्तुं न शक्नोति।
॥ परमराध्य: पूज्य: श्रीसद्गुरु भगवान जू॥