श्री राधारमणो विजयते
दो परिधि है एक वह है जो पहले लूटा है फिर उसके भीतर श्रद्धा का उदय हुआ है। एक वह है जिसके पास पारंपरिक श्रद्धा मौजूद थी फिर भी श्रीकृष्ण ने उसके दिल को चुराकर के लूट लिया है। ये दोनों परंपराएं हैं।
इन दोनों परंपराओं का निर्धारण तुम्हारे संस्कारों से होता है। एक वह था जिसको तो पता ही नहीं था कुछ। एक दिन ऐसा आया, रह गया। एक था जो सब जानता था।
बैठे थे प्रकाशानंद सरस्वती। कोई सामान्य नहीं, उद्भट्ट, दस हजार सन्यासी शिष्यों के गुरु। परंपराओं को बना देने वाले, काशी के उद्भट विद्वान प्रकाशानंद सरस्वती।
एक दिन ऐसे महाप्रभुजी आकर के श्रोताओं में चप्पल के पास बैठ गए। आंख से आंख मिली वह बोलने वाले की बड़े-बड़े विद्वान चुप हो जाएं, महाप्रभुजी से नजर मिलते ही अपना विषय भूल गए। वो वृंदावन में आकर के कहते हैं-
अद्वैत वीथिर् पथिकैर्उपास्य,सौराज्य सिंहासन लभ्य दीक्ष्य।
शठेन केनापि हठेन नीप, दासी कृता गोपबधु बिटेन।।
क्या बताऊँ, एक दिन एक ऐसा हठी आ करके, हठेन शठेन,, गाली दे रहे हैं। गाली देकर के बोले है।
अच्छा खासा सोने के सिंहासन पर बैठा हुआ था पूज्यनीय, सम्माननीय प्रकाशनीय। वाह वहाइयों में जीने वाला मैं एक दिन ऐसा हठी आकर के बैठा, एक ऐसा हठेन, एक ऐसा शठेन कि मुझ प्रकाशानंद को ‘दासी कृता गोपवधू बिटेन’।।
गोपी के घरों में उसके चावलों से कंकड़ बीनने वाले उसके दास के दास के दास के दास के द्वारा खरीदा हुआ बिना मोल का दास बना दिया।
एक वो है। छोड़ेगा नहीं। चिंता मत करो।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
There are two spheres; one wherein the individual has been looted and then Shraddha arises in him. The other is that the traditional Shraddha was already there, still Shree Krishna steals his heart. These are two different situations.
The decision regarding this tradition depends on your sanskaras or virtues. In one case the individual is totally ignorant. Then a time came and he stood still. The other knew everything.
Shri Prakashananda Saraswati was sitting quietly. He was no ordinary person, he was the Guru of ten thousand enlightened Sannyasis. He was one who made traditions and one of Kashi’s well known scholar, The one and only Prakashananda Saraswati!
One day, Shreemann Mahaprabhuji quietly came and sat down outside amongst the slippers. Hearing him great scholars would become meek but the moment he saw Shreemann Mahaprabhuji, he forgot the subject and was dumbstruck! Coming to Shree Dham Vrindavan he says –
‘Advaita veethirr pathikairuppasya, Saurajya singhasana labhya deekshya| Shatthena kenaapi hatthena neepa, daasi krita gopabadhu bittena||’
What to say, one day such a stubborn person, he abuses saying, stubborn, stupid and so on! He spoke in an abusive manner.
The person was merrily seated on a golden throne, he was respected, honoured and quite enlightened! I was used to only appreciation and praises from all sides, but one day such a stubborn and a stupid person came and made this Prakashananda into a, ‘Daasi krita gopabadhu bittena’||
He made me the maid-servant of the maid-servant of the maid-servant of the maid-servant of the maid-servant who is employed by the Gopis to seive and clean the tiny bits of stones, etc from rice and help her in her household chores without any pay!
He is such; he won’t spare you, dont you worry!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
द्वौ चरणौ स्तः, एकः प्रथमं लुण्ठितवान् ततः तस्य अन्तः विश्वासः उद्भूतः। एकः अस्ति यस्य पारम्परिकः श्रद्धा आसीत् तथापि श्रीकृष्णः तस्य हृदयं अपहृत्य लुण्ठितवान्। एतौ परम्परौ स्तः।
एतौ परम्पराद्वयं भवतः मूल्यैः निर्धारितम् अस्ति। एकः आसीत् यः किमपि न जानाति स्म। एकस्मिन् दिने आगत्य तत् निवृत्तम्। एकः आसीत् यः सर्वं जानाति स्म।
प्रकाशानन्द सरस्वती उपविष्टा आसीत्। न तु सामान्यः उद्भटः दशसहस्राणां संन्यासशिष्यगुरुः। परम्परानिर्माता काशी के प्रख्यात विद्वान प्रकाशनानंद सरस्वती।
एकदा महाप्रभुजी आगत्य प्रेक्षकाणां मध्ये चप्पलसमीपे उपविष्टवान्। नेत्र-नेत्र-संपर्कः महान् विद्वांसः मौनम् अकुर्वन्, परन्तु महाप्रभुजी नेत्र-संपर्कं कृत्वा एव सः स्वस्य विषयं विस्मृतवान् । वृन्दावनं आगत्य कथयति- १.
अद्वैत वीथिर पथिकैर उपस्य, सौरज्य सिंहासन लभ्य दीक्ष्य।
शठेन केनापी हठेन नीप, दासी कृत गोपबाधु बितेन।
किं वदामि, एकस्मिन् दिने एतादृशः हठिः आगत्य मां दुर्व्यवहारं कर्तुं आरब्धवान्। सः अपशब्दं उक्तवान् अस्ति।
सुन्दरं सुवर्णसिंहासनं पूज्यः, आदरणीयः आसीत् । वाह, अहम्, दूरस्थेषु वसन्, एकदा आगत्य अत्र उपविष्टवान् एतावत् हठः, एतादृशः हठः, तादृशः दुर्बलः यत् प्रकाशनानन्दः मां ‘दासी कृतं गोपवधू दंष्टम्’ इति अवदत्।
गोपीगृहे सः स्वस्य दासस्य दासस्य दासस्य दासस्य दासः कृतः, अमूल्येन क्रीतः, स्वस्य तण्डुलक्षेत्रेभ्यः शिलाखण्डान् संग्रहीतुं।
एकः अस्ति। न गमिष्यति। चिंता मास्तु।
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥