श्री राधारमणो विजयते||
सेवा करने के लिए केवल भावना नहीं चाहिए, सेवा करने के लिए विवेक भी चाहिए। कहीं-कहीं जगह जाओ तो गुरुजी खाना ही पड़ेगा इतनी देर से बनाए हैं। कितना भी नहीं नहीं पर।
भावना के साथ विवेक चाहिए कि मैंने बनाया घंटों है पर आप बस नजर डाल दीजिए। मेरी औकात आपके सामने रखने की है बस। उसके ऊपर मेरी सामर्थ्य नहीं है। हनुमान जी ने मैनाक के ऊपर केवल हाथ रखा और आगे बढ़ गए। केवल स्पर्श आपकी रुचि है। आप आगे पाओ सो पाओ, देखो सो देखो, बांटो सो बांटो।
अपने मन की चलाना सेवा नहीं होता, उनके मन की चलाना सेवा होता है। हम अपने मन से ठाकुरजी की सेवा नहीं कर सकते, ठाकुरजी के मन से उनकी सेवा करने का प्रयास करते हैं।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
II Shree Radharamanno Vijayatey II
For doing Sewa, you just don’t need feeling but there needs to be Vivek or understanding as well. When we go, at some place they say that Guruji, you have to eat because we have been cooking for for so long. If not much but please do have some thing, they pressurize inthis way!
Along with feeling, Vivek is very important like if they say that we have cooked with so much effort, if you don’t feel like never mind, at least touch the Thali! It is our duty to present it before you, that’s it! Beyond that, we have no right! Shree Hanumanji Maharaj just touched ‘Mainak’ and went ahead! Even touching is entirely your choice! If you feel like having or just seeing or touching or distributing it is entirely your prerogative!
Just to force what you want is not Sewa, to do as what he pleases is Sewa! We can’t do Thakurji’s Sewa just if you feel like it, you should try and do the Sewa as He pleases!
II Param Aaradhya Poojya Shreemann ManMadhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj II
सेवां कर्तुं न केवलं भावः अपेक्षितः, सेवितुं प्रज्ञा अपि अपेक्षिता। यदि भवान् केषुचित् स्थानेषु गच्छति तर्हि एतावत्कालं यावत् पक्वं गुरुजीं खादितव्यं भविष्यति। कियत् अपि न ।
मया तत् निर्मातुं घण्टाः व्यतीताः किन्तु भवन्तः केवलं अवलोकयन्तु इति भावेन सह विवेकस्य आवश्यकता वर्तते। मया केवलं भवतः पुरतः मम स्थितिः प्रस्तुतव्या। तस्य उपरि मम शक्तिः नास्ति। हनुमान जी केवलं मैनाक उपरि हस्तं स्थापयित्वा अग्रे गतः। केवलं स्पर्शः एव भवतः रुचिं जनयति। यदि भवन्तः अधिकं गच्छन्ति तर्हि भवन्तः प्राप्नुवन्ति, यदि भवन्तः पश्यन्ति तर्हि पश्यन्तु, यदि भवन्तः साझां कुर्वन्ति तर्हि भवन्तः साझां कुर्वन्ति।
भवतः मनः अनुसरणं न सेवा, तेषां मनः अनुसरणं सेवा। वयं मनसा ठाकुरजीं सेवितुं न शक्नुमः, ठाकुरजीं मनसा सेवितुं प्रयत्नशीलाः स्मः।
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥