
श्री राधारमणो विजयते||
वास्तविकता में स्वतंत्र सुख और दुख तो है ही नहीं। ये व्यक्तिगत विषय हैं। वास्तविक स्थिति तो आनन्द है जीव का स्वरूप न सुखी रहना है, न दुखी रहना है जीव का वास्तविक स्वरूप तो आनन्द में रहना है।
संसार का स्वरूप है गीता में श्रीकृष्ण ने कहा-
दुःखालयम् असाश्वतम्॥
ये असाश्वत है और दुःखालय है।
जैसे कोई व्यक्ति मानो बाहर का है और आकर वृंदावन आकर बस गया हो तो रह-रह के, रह-रह के धीरे-धीरे वो यहाँ की चाल-ढाल सब पकड़ लेते हैं। पहचानना मुश्किल हो जाय कि ये यहाँ का रहने वाला नही है कि ब्रजवासी है। वैसे ही बोले।
जैसे किसी स्थान पर रहते हुए व्यक्ति अपना मूल स्वभाव, मूल भाषा, मूल चाल ढाल को भूल जाता है और उस स्थान पर रहने लगा हो तो उसके हावभाव में वहाँ की जलवायु प्रवेश कर उसके स्वरूप को बदल देगी।
उसी प्रकार जीव का वास्तविक स्वरूप तो आनन्दमय है। संसार का स्वरूप दुःखालयमय है तो जीव जैसे कोई बाहर का यहाँ रहकर यहाँ की चालढाल करने लगे उसी प्रकार जीव भी संसार में रहकर दुःख का अनुभव करने लगता है। जबकि जीव का वास्तविक स्वरूप दुःख नहीं है।
जीव तो विशुद्ध भगवद् अंश है। गोस्वामी जी ने कहा-
ईश्वर अंश जीव अविनाशी।।
माना कोई छोटा बालक हो और किसी दुर्घटना में जन्म लिए अभी नये बालक के माता पिता गुजर गए हों और किसी अन्य मातापिता ने उसका पोषण किया हो तो वो बालक उसी में अपने मातापिता का दर्शन करेगा। कुछ ऐसा ही हमारे साथ हो जाता है। जीव का स्वरूप तभी समझ में आएगा जब सृष्टि की रचना का क्रम समझ में आएगा।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
