श्री राधारमणो विजयते
कृष्णकृपा और गुरुकृपा कथा बोलने में कम होती है और कथा सुनने में ज्यादा होती है। बोलने को तो जो मर्जी चाहे जो बोल ही लेगा। सबके सामने माइक धर दो, 10- 5 मिनट अपनी बात तो सभी इधर-उधर घुमा ही लेंगे। सभी वाक् पटु हैं, सभी इतनी प्रतिभा को रखते हैं।
कथा बोलना कम गुरुकृपा है, कथा सुन लेना ज्यादा गुरुकृपा है।
सबसे ज्यादा कठिन काम इस दुनिया में कथा सुनना है। और मंगल भी सुनने में ही होता है। श्रवनम कीर्तनम विष्णु।। वेद में क्या है? श्रुति। श्रुति किसको कहते हैं? जिसे श्रवण किया जाए। सुना जा सके। अध्ययन कितना कर सकते हो? पहले सुनना पड़ेगा।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
‘Krishna-Kripa’ and ‘Guru-Kripa’ is less in narrating the Katha than in hearing. In narration one can speak whatever one wants. Give the mike to anyone, for 10/15 minutes the person will manage to speak, whatever comes to his mind. Everyone is a clever speaker, they at least have this caliber in them.
The ‘Guru-Kripa’ is marginally less in narrating the Katha and much more in listening.
To patiently sit and hear the Katha is not very easy. But hearing is very divine and auspicious. ‘Shravannam kirtannam Vishno’|| What is there in the Vedas? Shruti? What is Shruti? That what is heard and can be heard! How much can you read or study? You will need to listen, first!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
कृष्णस्य प्रसादः गुरुप्रसादश्च कथाकथने न्यूनः कथाश्रवणे च अधिकः भवति। यत्किमपि वक्तुम् इच्छति तत् वक्तुं शक्नोति। माइकं सर्वेषां पुरतः स्थापयन्तु ततः १०-५ निमेषेषु सर्वे स्वदृष्टिकोणं विवर्तयिष्यन्ति। सर्वे वाग्मिताः सन्ति, सर्वेषां एतावता प्रतिभा वर्तते।
कथां कथनं न्यूनं गुरुकृपा, कथां श्रवणं अधिकं गुरुकृपा।
अस्मिन् जगति कठिनतमं वस्तु कथाश्रवणम् एव । सुखं च श्रवणे अपि निहितम् अस्ति। श्रवणं कीर्तनं विष्णु। वेदे किम् अस्ति ? श्रुतिः । श्रुतिः किं कथ्यते? या श्रोतव्यः। श्रोतव्यः । कियत् पठितुं शक्नोषि ? प्रथमं भवता श्रोतव्यम्।
परमाराध्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज .