
श्री राधारमणो विजयते
बड़े से बड़ा प्रायश्चित जीव कर ले पर अगर वह भगवत विमुख है,कृष्ण विमुख है तो उसकी शुद्धि होना असंभव है। और अगर कोई कृष्ण सन्मुख जीव है तो उसकी सन्मुखता ही उसका सबसे बड़ा प्रायश्चित है। फिर कोई समस्या नहीं है।
सद् कर्म करें, असद कर्म करें यह सब बात दूसरी है पर सीधी बात है कोई कृष्ण सन्मुख जीव हो तो वह असद कृत्य कर ही कैसे सकता है?
जीवन का सारा प्रबंध बस इतना सा ही है कि श्रीकृष्ण के सन्मुख हो जाओ। अपनी सारी व्यवस्था को अनुकूल लेना।
आनुकूल्येन् कृष्णानुशीलनम।।
जैसे किसी के घर में अतिथि आए, रोज कोई ना कोई आता रहता हो तो वह अपनी सारी व्यवस्था को उस आवश्यकता के अनुकूल बनाता है। किसी स्थान पर कोई आता ही ना हो तो बड़ी भूमि होने पर भी वह एक ही कमरा बनवाएगा और
कहीं पर रोज ही सैकड़ों लोग आ रहे हैं,रह रहे हैं,बैठ रहे हो तो छोटा स्थान होते हुए भी वह वहां पर यथासंभव ज्यादा से ज्यादा कक्षा और भवन का निर्माण करेगा। जिससे आगंतुकों को सुविधा हो सके। क्योंकि आवश्यकता है इसलिए स्थान को उसके अनुकूल बनाया गया है।
भक्ति का अर्थ ही इतना है, आपको जैसे जीना है जी जिए,सुबह उठना नहीं उठना, खाना नहीं खाना, बैठना नहीं बैठना, चलना नहीं चलना यह सब कोई रोज जाकर पूछेगा थोड़ी ना। सारी व्यवस्था इतनी सी है कि आपका जीवन श्रीराधा रमणजी के अनुकूल हो। यही भक्ति का सबसे बड़ा संविधान स्वरूप है।
मतलब ठाकुर जी को कभी संकोच ना हो जाए। सारी व्यवस्था उनके अनुकूल हो। अपने हृदय में राधारमण जी की व्यवस्था बनाकर रखो आप। यह श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन, बंदन, पाद सेवन यह सब जितने व्यवस्थाएं हैं यह सब ठाकुर जी की अनुकूलता है। बस अब ताला उनके पास है।
गुरु का मतलब ही ऐसा होता है कि चाबी उन्हीं के पास है। आप जब मर्जी हृदय खोलो और
प्रविष्ट कर्ण रंध्रेण स्वनाम् भाव सरोरुहम्
धुनोति शमलम् कृष्णः सलिलस्य यथा शरत॥
आनुकूल्येन् कृष्णअनुशीलनम॥
सही बात तो यह है जिसके हृदय में श्रीकृष्ण विराजे,वो कहाँ किसी नर्क स्वर्ग में फंस सकता है? नरकों की बात छोड़ो, वह तो मोक्ष की भी इच्छा नहीं करता।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
II Shree Radharamanno Vijayatey II
The Jeeva can do as much of ‘Praayashchitta’ or atonement in life but if he is opposed to the Almighty or he is ‘Shree Krishna Vimukha’, there is no way he can be purified or cleansed. But if the Jeeva is ‘Krishna Sanmukh’ or is face to face with Shree Krishna then just being ‘Sanmukh’ is the biggest atonement! Then he doesn’t have anything to worry.
Whether he does virtuous deeds or evil, that is a different matter but if someone is pious or a devotee then he can’t do anything evil!
The simple rule is just this that always be face to face with Shree Krishna, that’s it! Your entire situation will become favourable.
‘Aanukullyena Krishnaanusheelanam’ II
Like, if guests come to someone’s house or if there is regular flow of guests then the person will have everything in place but if no one comes then in spite of having a large enough plot, the person will might just have one guest room and even the other arrangements will not be in tune to welcome guests.
In an entirely opposite scenario, even if the place is small but if people come and go regularly the arrangements will be there to cater to the guests without any problem. He will try and make necessary arrangements to make sure that guests are always welcome.
The meaning of Bhakti is just this that live the way you want, whether you want to get up early or not, want to eat or not, sit or don’t want to sit, you want to walk or not, now no one is going to go and ask you these questions! The entire arrangement is just this that your life becomes suitable or ideal for Shree Radha Raman ji! This is the constitution or the preamble of Bhakti!
In short it means that Shree Thakurji should never feel ashamed because of you! Everything should be favourable to Him! Keep the arrangements for Shree Radha Raman ji in your heart. ‘Shravan, Kirtana, Smarana, Archan, Vandan, Paad-Sevan’ and all the other characteristics are conducive to the Lord! Now the key is in His hands!
The actual understanding of Guru is this that he has the key! He can enter as and when he likes.
‘Karna randhrena svanaam bhava saroruham dhunoti shamallam Krishnaha: salilasya yatha sharata II
Aanukullyena Krishnaanusheelanam II’
The fact is that in the heart where Shree Krishna is seated, he will not be bothered about hell or heaven. What to talk about hell, he would not even bother about Moksha or liberation.
II Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj II
मनुष्यः महत्तमं तपस्यां कर्तुं शक्नोति, परन्तु यदि सः ईश्वरतः विमुखः भवति, कृष्णात् विमुखः भवति तर्हि तस्य शुद्धिः असम्भवः। यदि च कश्चित् कृष्णप्रधानः प्राणी अस्ति तर्हि तस्य आत्मनः सम्मुखीकरणं तस्य बृहत्तमं प्रायश्चित्तम्। तदा समस्या नास्ति।
सत्कर्म कुर्याद् वा दुष्कृतं वा, इदम् अन्यत् विषयम्, परन्तु सरलं वस्तु अस्ति यत् यदि कश्चन व्यक्तिः कृष्णप्रधानः अस्ति तर्हि सः कथं दुष्कृतं कुर्यात् ।
जीवनस्य समग्र व्यवस्था केवलं श्रीकृष्णस्य सम्मुखं भवितुं एव। सर्वाणि व्यवस्थानि अनुकूलतां कुर्वन्तु।
अनुकुलीयेन् कृष्णानुशीलनम् ।
यथा – यदा अतिथिः कस्यचित् गृहम् आगच्छति तदा कोऽपि प्रतिदिनं आगच्छति एव, ततः सः तस्याः आवश्यकतानुसारं सर्वान् व्यवस्थापनं करोति । यदि कश्चित् स्थानं न आगच्छति तर्हि तस्य विशालभूमिः अस्ति चेदपि सः एकमेव कक्षं निर्मास्यति तथा च
यदि प्रतिदिनं शतशः जनाः कुत्रचित् आगच्छन्ति, तिष्ठन्ति, उपविशन्ति च तर्हि अन्तरिक्षं लघुत्वेऽपि सः तत्र यथाशक्ति कक्षाः भवनानि च निर्मास्यति। यथा आगन्तुकाः सुविधां प्राप्तुं शक्नुवन्ति। आवश्यकता अस्ति इति कारणतः तदनुरूपं स्थानं निर्मितम् अस्ति ।
भक्ति-अर्थः केवलमेतत्, यथा इच्छसि तथा जीवतु, प्रातःकाले न उत्थाय, अन्नं न खादति, उपविष्टः न उपविष्टः, गमनम् न चरति, एतत् सर्वं, प्रतिदिनं कोऽपि गत्वा पृच्छति। समस्त व्यवस्था तादृशी यत् भवतः जीवनं श्री राधा रमञ्जी अनुरूपं भवेत्। एतत् भक्तिस्य बृहत्तमं संवैधानिकं रूपम् अस्ति।
अर्थ ठाकुर जी कदा भी संकोच न करें। तेषां कृते सर्वा व्यवस्था अनुकूला भवेत्। राधारमण जी की व्यवस्था हृदय में रखें। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पूजा, बन्दन, अन्नभक्षण इत्यादीनि सर्वाणि व्यवस्थानि, एतानि सर्वाणि ठाकुरजी-पक्षे सन्ति। इदानीं तेषां ताला अस्ति।
गुरुः तस्यैव कुञ्जी इत्यर्थः । यदा यदा इच्छसि तदा हृदयं उद्घाटयतु तथा च
प्रविष्ट कर्ण रंध्रेण स्वनाम् भाव सरोरुहम्
धुनोति शमलम् कृष्ण: सलिलस्य यथा शरत।
आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनम् ।
श्रीकृष्णः यस्य हृदये निवसति, सः कथं कस्मिन् अपि नरके स्वर्गे वा फसति इति सम्यक् अस्ति। नरकं विस्मरतु, मोक्षमपि न कामयति।
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥
