श्री राधारमणो विजयते
विवेकी के लिए इतना ही समझ लेना पर्याप्त है कि संसार में पिंजरा क्या है? गीता ने इस शरीर को भी पिंजरा कहा है। किसी ने संबंधों को कहा है, बुद्ध ने तो इस पूरे संसार को ही कह दिया है।
हमारी कॉन्शसनेस अभी केवल इस मैटेरियलिस्ट प्लेजर का ही अनुभव किया है। अभी इसने ये अनुभव नहीं किया है कि जब वृंदावन की गलियों में घूमते हुए कोई प्रेमी जोर से जय श्री राधे बोलता है तो उसमें क्या आनंद आता है। सब अपनी अपनी व्यवस्था में फंसे हुए हैं। सबका अपने हिसाब का पिंजरा है।
अगर मैं शास्त्र का आश्रय लेकर कहूँ तो अगर आप यहाँ हो तो आप पिंजरे में ही हो। हो सकता है कि वह इतना बड़ा पिंजरा हो की पता ही नहीं चलता। वो पिंजरा किसी का संबंध है, किसी का शरीर भी, किसी की आदत भी। आदत को भी एक पिंजरा कहते हैं।
ऐसा ही मेरा अभ्यास है क्योंकि ऐसा सबका अभ्यास है, सब इस व्यवस्था में बड़े हुए हैं, इस चीज में आगे बड़े हैं वैसे ही सब बह रहे हैं इसलिए हम भी बह रहे हैं। तैर कोई नहीं रहा है; यह मान्यता भी एक बहुत बड़ा पिंजरा है।
गीता का श्लोक कहता है जब आप यह मानते हो कि मैं यहाँ का हूँ; मैं यहाँ हूंँ, दैट्स रियलिटी। पर मैं यही का हूँ यही सबसे बड़ा पिंजरा है। बस इतनी सी समझ आ जाए। इसलिए गीता का श्लोक सार्थक होता है-
निर्माण मोह: जित संग दोष….
जिस दिन आपको पता चल गया कि मैं यहाँ हूँ; वेद का सूत्र कहता है- त्वम् अमृतस्य पुत्रः।। तुम अमृत की संतान हो। इस बात का अनुभव करो। तुम अमृत अस्तित्व हो; इतना छोटा मत समझो अपने आप को।
इस संसार को सच मानोगे तो शव हो जाओगे, उसको सच मानोगे तो शिव हो जाओगे। अब ये हमारे हाथ में है कि शव यात्रा में जाना है कि शिव यात्रा में जाना है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
For a Viveki or a prudent individual it is enough to know what is a cage or a prison in the world? The Gita goes on to even describe the human body as a cage. Some people say that relationships are akin to a cage and Lord Buddha decribes the world to be a prison!
Our consciousness has only been able to experience the material pleasures. It is yet to experience the bliss experienced by a Premi wandering in the lanes and by lanes of Shree Dham Vrindavan with ‘Jai Shree Radhey’ on his/her lips. Everyone is busy doing their own thing, thereby being caged in the cages of their own limitations.
Taking the cue from the scriptures I would like to say that when you are here, you are in a cage. It maybe possible that the cage is so big that you don’t feel imprisoned! It can be a relationship for some or the body or it could also be one’s habits. Even the habits can become a cage.
This is the general experience because it is the experience of majority of others, people have grown up in this manner and moved on like this. Since others are flowing in this tide, so am I! No one is swimming; this belief is in itself a cage.
A Shloka of the Gita says that when you believe that you belong here; it tends to become a reality! Now, this itself is the biggest cage! We just need to understand this! Therefore, this Shloka of the Gita says it all-
‘Nirmaan mohaha: jitsanga dosha …..’
The moment you realize this, the sutra from the Vedas says-
‘Tvam amrittasya putraha:||’
You are the children of Amrita. Experience it! Your realty is immortal or Amrita, don’t degrade yourself.
If you will believe the world as a reality, you will become a corpse and if you understand it to be unreal, you can attain Shivatva! Now, it is in your hand whether you want to go in a funeral procession or be a part of Shiva’s retinue!
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
इह लोके पञ्जरः किम् इति ज्ञातुं बुद्धिमान् पर्याप्तम्? गीता अपि एतत् शरीरं पञ्जरम् इति उक्तवती अस्ति। केनापि सम्बन्धानां विषये एवम् उक्तम्, बुद्धेन समग्रस्य जगतः विषये एवम् उक्तम्।
अस्माकं चैतन्यम् अधुना एव एतत् भौतिकं सुखम् अनुभवति । वृन्दावनस्य वीथिषु भ्रमन् यदा कश्चन प्रेमी उच्चैः जयश्री राधे इति जपं करोति तदा सा यत् आनन्दं अनुभवति तत् अद्यापि न अनुभवति। सर्वे स्वस्वव्यवस्थायां फसन्ति। सर्वेषां स्वकीयः पञ्जरः भवति।
यदि अहं शास्त्रमाश्रित्य वदामि, यदि त्वम् अत्र असि तर्हि त्वं पञ्जरे असि। सम्भवति यत् एतावत् विशालं पञ्जरं यत् तत् न दृश्यते अपि । सः पञ्जरः कस्यचित् सम्बन्धः, कस्यचित् शरीरं, कस्यचित् आदतिः अपि अस्ति। आदतं पञ्जरम् अपि उच्यते ।
एषः मम अभ्यासः यतः एषः सर्वेषां अभ्यासः अस्ति, सर्वे अस्मिन् तन्त्रे वर्धिताः, ते अस्मिन् विषये उन्नताः सन्ति, तथैव सर्वे प्रवहन्ति, अतः वयम् अपि प्रवहन्तः स्मः। न कश्चित् तरति; एषः प्रत्ययः अपि अतीव विशालः पञ्जरः अस्ति ।
गीतातः श्लोकः वदति यदा भवन्तः मन्यन्ते यत् अहम् अत्र एव अस्मि; अत्र अहम् अस्मि, तत् एव वास्तविकता। परन्तु अत्रैव अहं अस्मि, एषः एव बृहत्तमः पञ्जरः। केवलम् एतावत् अवगच्छन्तु। अत एव गीताश्लोकः सार्थक-
निर्माण मोह: जीत संग दोष….
यस्मिन् दिने भवन्तः जानन्ति यत् अहम् अत्र अस्मि; वेदसूत्रम् उक्तम् – त्वम् अमृतस्य पुत्रम्। त्वं अमृतस्य बालकः असि। एतत् अनुभवतु। त्वं अमरः सत्त्वः; एतावत् लघु इति आत्मानं मा मन्यताम्।
यदि त्वं इदं जगत् सत्यं मन्यसे तर्हि त्वं मृतशरीरं भविष्यसि, यदि त्वं सत्यं मन्यसे तर्हि त्वं शिवः भविष्यसि। अधुना अस्माकं हस्ते अस्ति यत् अन्त्येष्टियात्रायां गन्तव्यं शिवयात्रायां वा।
॥परमराध्या: पूज्या: श्रीमन्ता: माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्या: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराजा:।।