सनातन धर्म में मूल रूप से कुछ संप्रदाय हैं जिसमें ही एक मात्र दीक्षा लेने का विधान है। ऐसे ही कहीं भी कोई अच्छा लगा तो उसी से दीक्षा ले लीजिए। ठीक है पर उसका कोई महत्व नहीं है।
भाव से तो हम चीँटी को भी गुरु बना कर प्राप्त कर सकते हैं पर जो एक आर्ष्य मर्यादा है उसके अनुसार
आप कोई भी रेलवे पटरी पर खड़ी ट्रेन में बैठ जाओगे तो थोड़ी न अपने लक्ष्य तक पहुँच पाओगे। जिसके आगे इंजन लगा हो, जिसकी परम्परा हो, ये सब वैदिक परम्परा का विधान है। मंदिर भी उन्हीं का बनता है और दीक्षा भी वहीं हो सकती है।
दीक्षा एक संस्कार का नाम है। ऐसे ही हम कहीं से मंत्र नहीं ले सकते।
सम्प्रदाय कैसे बनती है? तो पद्मपुराण में लिखा है- सनकादिक, शिव,, श्रीलक्ष्मी ये सब ही सम्प्रदायों का प्रारम्भ करते हैं। ये मुख्य गुरु हैं।
पांच सम्प्रदाय वैष्णवों की मुख्य हैं। जिसमें सबसे पहले शंकराचार्य जी का संप्रदाय है। जो त्रिपुण्ड का तिलक लगाते हैं। फिर इसी में भगवान रामानुज की सम्प्रदाय है जो लाल रंग का बीच में श्री लगाते हैं। ऐसे तिलक लगाते हैं जैसे तिरुपति बालाजी तिलक लगाते हैं, ऐसे रामानुज सम्प्रदाय के तिलक हैं। इसी में श्रीविष्णु स्वामी सम्प्रदाय हैं जिसमें पीले रंग का तिलक होता है घूमकर के आता है।
इसी क्रम में श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय है। ये भी वैष्णवों की प्रधान सम्प्रदाय है। और इसी क्रम में श्रीमध्व सम्प्रदाय फिर इनके भीतर उपसम्प्रदाय का जन्म हुआ जो इन्हीं के साथ पुष्ट है इसी में श्रीवल्लभ सम्प्रदाय है। इसी क्रम में गौड़ीय सम्प्रदाय हैं।
इन्हीं जगह दीक्षा को आधिकारिक रूप से दीक्षा माना जा सकता है।
जमीन पर कब्जा कोई कर ले, सौ साल से कब्जा करके रहो वो बात दूसरी है। पर रहने वाला व्यक्ति कभी न कभी भय खाएगा ही खाएगा। कभी माथा किसी का खनक गया और कोई मजबूत आदमी आ गया तो हमपे तो कोई अधिकार नहीं है।
पर अगर भूमि पर न रह रहा हो और दस्तावेज उसके पास हों तो वो उसके बाद भी विश्वास में रहता है कभी हमारा समय आ गया तो इस जमीन को फिर से ले लेंगे। उसी प्रकार
अनाधिकारिक तो कोई भी आजकल गुरुडम है जिसकी जो मरजी कौन गुरु कौन चेला, नरक में ठेलम ठेला।। पर आधिकारिक रूप से इन सम्प्रदायों के भीतर ही दीक्षा ग्रहण की जा सकती है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।