आप इस दुनिया में कैसे रहो? यह किसकी दुनिया है? यह जानना जरूरी है। कोई यै सोचे कि ये मेरी दुनिया है, यही सबसे बड़ा झंझट है। क्योंकि जब आप नहीं थे, ये दुनिया तब भी थी और आप जब नहीं रहोगे, ये दुनिया तब भी रहने वाली है। ये तो रोज परिवर्तनशील है।
कश्त्वम् कोऽहम् कुत आयात्॥
यह दुनिया किसकी है? ये दुनिया ईश्वर की है। उनकी दुनिया में हम रह रहे हैं। ये समझना समाधान है। और यही सत्य है। अपनी दुनिया में हम रह रहे हैं, यही झंझट है। तभी व्यक्ति मरते-मरते अपने position का कैल्कुलेशन बिठाता है।
केवल इतनी सी एथिक्स हमारे कल्पना में, कहीं मूल में, कहीं शोर्स में आ जाय।
ये दुनिया हमारी नहीं है, ये सोचकर रहना ही वैराग्य है। वैराग्य और कुछ नहीं है। कोई ये सोचे कि साधारण कपड़ा पहनता हो, लंगोटी बांधता हो वो वैरागी है तो फंसने वाला लंगोटी में भी फंस सकता है। पहले चार कमरे का घर था, अब चालीस कमरे का आश्रम हो गया है। और झंझट।
एक महात्मा सोने के सिंहासन पर बैठकर कहता है, ये सब माया है। ये बात समझ में नहीं आई। फंसने वाला वहाँ भी फंस सकता है। पर पहले नंबर की चीज
इस दुनिया को दूसरे की मानकर जीना या रहना वैराग्य है। किसी के घर में, अपना नहीं है, यही मानकर रहा जा सकता है। या किसी के घर में रहना हो तो दूसरी बात, उसके हिसाब से रहा जा सकता है। आप किसी के घर में अपना मानकर रहने लगो कल ही निकाल दिए जाओगे।
किसी के घर में ये मानकर रहना कि ये मेरा नहीं है, ये वैराग्य है। या किसी के घर में जिसका घर है उसके हिसाब से रहा जा सकता है।
अगर ये पूरी दुनिया ईश्वर की है तो ईश्वर के हिसाब से रहना ही भक्ति है। अपनी नहीं है ये मानकर रहना वैराग्य है। जिसका है उसके हिसाब से रहना भक्ति है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
|| Shree Radharamanno Vijayatey ||
How should one live in this world? Whose world, is it? It is important to be aware of this. If someone thinks that this world is his/hers, it shall be the biggest stupidity. Because, when you were not there, the world existed and even after you are gone, the world shall continue to exist. It is ever changing!
Whom does the world belong? It belongs to the Almighty! We all are living in His world. To understand this correctly is the answer or the solution. To say that I am living in my world is the biggest problem. That is why, lying on the death bed, the individual tries to calculate his/her position.
Just this ethics if understood by us in its entirety or from any source is sufficient.
This world is not mine, to live with this understanding is ‘Vairagya’ or renunciation. Renunciation is just this! If you think that a person wearing plain clothes or just a loin cloth is a renunciate then don’t be mistaken, even the one in the loin cloth can fall into the trap! First, he had a four bedroomed flat now he runs a forty-room ashram. A bigger problem to handle!
One Mahatma, seated on a golden throne says that all this is Maya. What a dichotomy! Anyone can fall in the trap anytime. So, first of all, please remember;
To think that the world in not yours is ‘Vairagya’. You can stay in somebody’s house as a guest because it does not belong to you. Secondly, if you are a guest then you need to be careful about the way to stay because it needs to be in accordance with the host. The moment you start living there thinking it to be your house, you will be thrown out!
To stay in the house thinking that it does not belong to me and I am in transit is ‘Vairagya’. Or stay in accordance to the likes or dislikes of the owner!
If this world belongs to God, then to live according to the will of God is Bhakti. Not considering it to be your property is Vairagya. To live according to the will of the ultimate owner is Bhakti!
|| Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj ||
श्री पुण्डरीक जी सूत्र (२४-०६-२०२३)
कथं त्वं जगति जीवसि? कस्य संसारमिदम् ? एतत् ज्ञातुं महत्त्वपूर्णम् अस्ति। यदि कश्चित् मन्यते यत् एषः मम जगत् अस्ति तर्हि एषा एव बृहत्तमा समस्या। यतः यदा त्वं नासीत् तदा अयं संसारः अद्यापि आसीत् यदा त्वं न भविष्यसि तदा अयं संसारः अपि तत्रैव भविष्यति। प्रतिदिनं परिवर्तनं भवति।
काष्ठवं को’हुं कुट आयात ॥
कस्य संसारमिदम् ? अयं संसारः ईश्वरस्य एव। वयं तेषां जगति जीवामः। एतत् अवगत्य एव समाधानम्। एतत् च सत्यम्। वयं अस्माकं जगति जीवामः, तत् एव क्लेशः। अत एव मनुष्यः म्रियमाणः स्वस्थानं गणयति ।
केवलम् एतावता नीतिः अस्माकं कल्पनायां, कुत्रचित् कोरे, कुत्रचित् तीरेषु आगन्तुं अर्हति।
अरुचिमिदं संसारोऽस्माकं नास्ति । अरुचिः अन्यत् किमपि नास्ति। यदि कश्चित् सरलवस्त्रधारणं कटिबन्धनं च एकान्तवासः इति मन्यते तर्हि यः फसति सः कटिवस्त्रे अपि फसितुं शक्नोति पूर्वं चतुर्कक्षीयं गृहम् आसीत्, अधुना चत्वारिंशत् कक्ष्याश्रमं जातम्। उपद्रव च।
सुवर्णसिंहासनोपविष्टः महात्मा कथयति, एतत् सर्वं माया। एतत् वस्तु न अवगच्छति स्म। यः फसति सः तत्र अपि फसितुं शक्नोति। किन्तु प्रथमसङ्ख्यायाः वस्तु
इदं जगत् अन्यस्य इति मत्वा जीवितुं वा जीवितुं वा अरुचिः। कस्यचित् गृहे अस्माकं स्वकीयं नास्ति इति कल्पयितुं शक्यते। अथवा यदि भवन्तः कस्यचित् गृहे निवासं कर्तुम् इच्छन्ति तर्हि द्वितीयं वस्तु, भवन्तः तदनुसारं जीवितुं शक्नुवन्ति। त्वं कस्यचित् गृहे स्वकीयत्वेन निवसितुं आरभसे, श्वः एव त्वं बहिः क्षिप्तः भविष्यसि।
न मम इति मत्वा कस्यचित् गृहे स्थातुं निरर्थः। अथवा यस्य गृहं वर्तते तस्य अनुसारं कस्यचित् गृहे वसितुं शक्यते।
यदि एतत् सर्वं जगत् ईश्वरस्य अस्ति तर्हि ईश्वरस्य अनुसारं जीवनं भक्तिः एव। अस्माकं नास्ति इति विश्वासः अरुचिः एव। भक्तिः यत् अस्ति तदनुसारं जीवति।
परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।