जीव संसार में कैसे रहता है? इस सिद्धांत का निरूपण गजेंद्र मोक्ष की कथा से होता है। हाथी प्यासा होकर पानी में गया, पानी में रहता नहीं था। आप यहाँ के हो नहीं, यहाँ आए हो। पानी में हाथी रहता नहीं है, प्यासा होकर आया है। जब जीव के भीतर तृष्णा का उदय होता है तब वो जगत में जन्म लेता है।
जैसे ही हाथी पानी में उतरा तो एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया, फिर हाथी बाहर आया, फिर मगर अंदर ले गया, ये लड़ाई चलती रही हाथी और मगर की। जिस क्षण आपका यहाँ जन्म हुआ उस दिन से मृत्यु के मगर ने पैर पकड़ लिया। जिस क्षण जन्म हुआ उस क्षण मृत्यु हो सकती है। मतलब अब चाहे एक घंटे बाद हो, एक दिन बाद हो, एक महीना वर्ष बाद हो, सौ वर्ष बाद हो। पर
एक न एक रोज ये हंगामा हुआ रखा है।
ये मृत्यु का हंगामा होगा ही होगा। जब तक जन्म नहीं था तब तक मृत्यु की भी सम्भावना नहीं थी। मृत्यु का मतलब ही यही है, प्लीज़ चेक आउट!
एक व्यक्ति लेटा ज़मी पर, लोग कहते मर गया है
वो बेचारा था सफर पर आज लौट घर गया है।।
वापस जाना पड़ता है।
मगर अन्दर खींच कर ले गया, हाथी बाहर ले आया। मृत्यु और जीवन के बीच सतत् युद्ध चलता है। जिस क्षण स्वास बाहर जाती है, मृत्यु पास होती है, जिस क्षण स्वांस भीतर जाती है जीवन पास होता है। हम लड़ते रहते हैं।
एक दिन दिखना बंद हुआ तो समझ लेना, मगर ले गया हाथी भीतर। ये युद्ध रोज चलता रहता है। धीरेधीरे समय के साथ जीवन की सम्भावनाएँ शिथिल होती जाती हैं और मृत्यु की सम्भावनाएँ जटिल होती जाती हैं।
पहले हाथी खुद लड़ रहा था, जब हार गया तो घरवालों को बुलाया। व्यक्ति पहले अपना कार्य खुद करता है और जब धीरेधीरे वो शिथिल होने लगता है तो लोगों की सहायता खोजता है। सही बात तो ये है कौन किसकी कब तक सहायता कर सकता है?
किसी की सहायता कि मांग करना ही इस जीवन में दुख का निमंत्रण है।
हाथी को छोड़कर सब चले गए हाथी ने देवताओं को पुकारा, कभी गणेश जी को पुकारा मेरी रक्षा करो। वो तैयार हुए, तभी शिव जी को पुकारा मेरी रक्षा करो, शिवजी आए तो भगवती मेरी रक्षा करो, वो तैयार हुईं तो इंद्र मेरी रक्षा करो…
व्यक्ति सबको पुकारता है। जिसके जीवन में विश्वास निष्ठा की कमी है वही सबको पुकारता है। अंत में
लक्ष्मी जी ने कमल फेंका, हाथी का पूरा शरीर डूब गया था थोड़ी सी सूंड बची थी। व्यक्ति का पूरा शरीर शिथिल हो जाता है थोड़ी सी मति बुद्धि बची रहती है। वो कमल तैरता हुआ सूंड से टकराया। लक्ष्मी गुरु हैं, जब सत्संग का कमल जीव की बुद्धि से टकराता है तभी हाथी (जीव) पुकार पड़ता है…
हे गोविन्द! हे गोपाल! हे दयालनाथ!
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
|| Shree Radharamanno Vijayatey ||
How does the ‘Jeeva’ live in the world? The answer to this is clearly explained through the ‘Gajendra-Moksha’ Katha. The elephant king was thirsty and enters the water though, he is not an amphibian. You don’t belong to this place but you have come here! So, though not being a creature living in the water, he enters it to quench his thirst. When ‘Trishna’ or desire arises in the ‘Jeeva’, he/she is born in the world.
As the elephant king entered the water, his foot was caught by a crocodile and a tug of war ensued between the two each one pulling the other from either side. The day one is born, from that very moment, death in the form of the crocodile catches one leg and tries to pull him/her in. It is quite possible that immediately after birth, one may die the very next minute! In other words, it can be after a few minutes or a few days, weeks, months or years who knows? But,
Death is an unavoidable certainty!
The dance of death will happen for sure! Till such time one is not born, the question of death does not arise. The meaning of death is, ‘It’s time for you to check-out’!
‘Ek aadmi leta tha zameen per, loga kahatey tthey marr gaya|
Who Bechara ttha safar mein, aaj apney ghar gaya ||
One has to go back!
The crocodile was pulling in the water whereas the elephant was trying to pull back. This tug of war is continuously going on between life and death. The moment one exhales, death lurks around and as one inhales, life smiles. This fight goes on!
The day darkness envelopes you, means that the crocodile has pulled you in. This see-saw battle goes on. Slowly and gradually the possibilities of life weaken and the clutches of death keep on getting stronger.
First, the elephant was trying to fight all alone but when he realised that he was getting weaker, he called his family. Man, first does his own work all by himself but as he/she grows old, the energy level saps and people look for help or assistance. The truth of the matter is, how long can one help another and to what extent?
To seek help itself is indicative of weakness and is an invitation to misery.
Firstly, everyone tried but when they failed, one by one they left. When he was left alone, he called upon the Devas. First of all, he called upon Lord Ganesh for help! As He got ready, then he called upon Lord Shiva, please help! He too came, then he called upon Ma Durga, as she got ready, he called upon Indra and this went on ….
Man calls upon whomsoever he/she may think of at the time of distress for help. The one who lacks faith will call all, Tom, Dick and Harry! Finally;
When the elephant was just about to drown excepting the tip of the trunk was sticking out, Ma Laxmi throws her Lotus. When the body became weak or tremulous, just a wee bit of intellect remained. The Lotus floated in the water and touched the tip of the trunk.
Ma Laxmi is Guru, when the Lotus of Satsang is thrown at us and it touches our intellect, at that very moment the ‘Jeeva’ calls the Almighty and says;
Hey Govind! Hey Gopal! Hey Dayal Nath!
|| Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj ||
श्री पुण्डरीक जी सूत्र (२८-०६-२०२३)
आत्मा कथं जगति जीवति ? अयं सिद्धान्तः गजेन्द्रमोक्षकथायाः दृष्टान्तः । गजः तृष्णां कृत्वा जलं गतः, सः जले न वसति स्म। त्वम् अत्र न, त्वं अत्र आगतः। गजः जले न वसति, पिपासा आगतः। आत्मनः अन्तः उत्पद्यते तृष्णा तदा लोके जन्म लभते।
गजस्य जले अवतरितमात्रेण एकः ग्राहः तस्य पादं गृहीतवान्, ततः गजः बहिः आगतः, ततः ग्राहः तं अन्तः नीतवान्, गजस्य ग्राहस्य च मध्ये एषः युद्धः अचलत् । त्वमत्र जातः क्षणात् आरभ्य मृत्युग्राहः पादं गृहीतवान् । जन्म यस्मिन् क्षणे भवति तस्मिन् क्षणे मृत्युः भवितुम् अर्हति। इदानीम् इत्यर्थः, किं प्रहरात् परं, दिनात् परं वा, मासात् परं, संवत्सरतः परं वा, शतवर्षेभ्यः परं वा इति। किन्तु
एकस्मिन् दिने वा अन्यस्मिन् वा एषः कोलाहलः अभवत्।
मृत्योः कोलाहलः भविष्यति। यावत् जन्म न आसीत् तावत् मृत्युसंभावना अपि नासीत् । एषः एव मृत्युः, कृपया पश्यन्तु!
भूमौ शयितः पुरुषः, जनाः वदन्ति सः मृतः अस्ति
सः दरिद्रः आसीत् किन्तु अद्य गृहं प्रत्यागतवान्।
पुनः गन्तुं भवति।
परन्तु तं अन्तः आकृष्य, गजं बहिः आनयत्। मृत्युजीवनयोः निरन्तरं युद्धं भवति । यस्मिन् क्षणे निःश्वासः निष्क्रान्तः भवति, तस्मिन् क्षणे मृत्युः समीपे एव भवति; यस्मिन् क्षणे श्वासः प्रविशति तस्मिन् क्षणे जीवनं समीपे एव भवति। वयं युद्धं कुर्वन्तः स्मः।
एकदा सः दर्शनं त्यक्तवान्, ततः अवगच्छतु, परन्तु गजं अन्तः नीतवान्। इदं युद्धं प्रतिदिनं प्रचलति। क्रमेण कालान्तरेण जीवनस्य सम्भावनाः शिथिलाः भवन्ति, मृत्युसंभावनाः च जटिलाः भवन्ति ।
पूर्वं गजः स्वयमेव युद्धं कुर्वन् आसीत्, यदा सः पराजितः अभवत्, तदा सः परिवारजनान् आहूतवान्। व्यक्तिः प्रथमं स्वकार्यं करोति, यदा सः शनैः शनैः आरामं कर्तुं आरभते तदा सः जनानां साहाय्यं याचते । सम्यक् वस्तु अस्ति यत् के कस्य कियत्कालं यावत् साहाय्यं कर्तुं शक्नोति?
कस्यचित् साहाय्यं याचना अस्मिन् जीवने दुःखस्य आमन्त्रणम् अस्ति।
गजं विहाय सर्वे निर्गताः, देवाः इति गजः, कदाचित् गणेश जी इति कथयति, मां रक्षन्तु। यदा सः सज्जः अभवत् तदा सः शिवजीं मां रक्षितुं आहूतवान्, यदा शिवजी आगच्छति तदा भगवती मां रक्षतु, यदा सा सज्जा अभवत्, तदा इन्द्रः मां रक्षतु…
व्यक्तिः सर्वान् आह्वयति। यस्य जीवने विश्वासः निष्ठा च नास्ति, सः सर्वान् आह्वयति। अन्ते
लक्ष्मी जी कमलं क्षिप्तवती, गजस्य सर्वं शरीरं मज्जितम्, केवलं किञ्चित् कूपं अवशिष्टम् आसीत्। मनुष्यस्य सर्वं शरीरं शिथिलं भवति, किञ्चित् मनः एव अवशिष्यते। तत् पद्मं प्लवमानं स्कन्धेन सह संघातं कृतवान् । लक्ष्मी गुरुः, यदा सत्संगस्य कमलं प्राणिनः बुद्ध्या सह संघातं करोति तदा एव गजः (जीवः) क्रन्दति…
हे गोविन्द ! हे गोपाल ! हे दयालनाथ !
परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।