श्री राधारमणो विजयते
जैसे तुम बाजार में जाकर पैसा देकर वस्तु को खरीदते हो,ऐसे ही तुमको कथा में भी कुछ देकर विवेक मिल सकता है। वह क्या है? पहले मन देना पड़ेगा फिर विवेक लेना पड़ेगा। और दिए हुए मन को मैंने अगर अपनी जेब में धर लिया तो अपने आप को भी बर्बाद कर लिया और आप सबको भी बर्बाद कर दिया, मेरी पूर्णता तो तब होगी जब तुम मन मुझको दे दो और मैं तुम्हारे मन को राधारमण को दे दूँ।
गुरुदेव महाराज सदैव एक बात कहा करते थे- भैया हमको प्रणाम मत किया करो। हम आपके किसी भी प्रणाम को स्वीकार नहीं करते हैं। वह सदा ही बोलते थे- हम आपके प्रणाम को स्वीकार नहीं करते बल्कि आपके किए गए प्रणाम को इकट्ठा करते चलते हैं और जब राधारमण के सामने खड़े होते हैं तब उसमें भी अपनी प्रणाम मिलाके कह देते हैं वहाँ गए थे इतने प्रणाम आए हैं राधारमण के चरणों में समर्पित कर देते हैं।
वो दिव्यता है। जब यह मिलेगा तो विवेक मिलेगा। वह विवेक ही तुम्हारा पहला गुरु है।
जैसे अलग-अलग जगह कैमरा लगा दिया जाता है और आदमी एक ही जगह बैठकर सब जगह का निरीक्षण परीक्षण एक ही जगह से अपनी आंखों का विस्तार कर देता है। इस प्रकार एक गुरु की सिद्धि इसी में होती है दीक्षा के समय वह मंत्र के साथ में आपके कान में विवेक को भी सेट कर देता है।
विवेक वह छलनी है जो जीवन में होने वाली प्रत्येक घटना को छान सकती है। और विवेक आपको कौन सा मिलना चाहिए? आप भी एक विवेक अपने पास रखो, एक छलनी एक कसौटी को अपने पास रखो। जो मर्जी सो करो। मैं नहीं बताऊंगा आपको, कोई नहीं बताएगा आपको और बताने भी गया तो कितना बता पाएगा कि क्या करना है और क्या नहीं करना है?
श्रीकृष्ण की भगवत गीता भी अगर यह बताने में निकलती तो 7000 श्लोकों में भी पूरी नहीं होती। क्या बता पाऊंगा मैं आपको कि क्या करना है और क्या नहीं करना है? बस एक काम करो;
जब भी कहीं जाओ बस एक कसौटी का पत्थर अपने पास रख लो कि मैं जो भी कर रहा हूँ क्या वह मेरे राधारमण को पसंद आएगा?
बस फिर जो मर्जी सो करो।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
||Shree Radharamanno Vijayatey||
Like when you go to the market and buy something after paying the requiste amount, in the same way when you go to Katha then you can get Vivek after giving something! What is that? First you have to give your mind, only then will you get Vivek. If that Vivek I keep it in my pocket then I have ruined my self as well as ruined all of you! It will attain fruition only if the mind you have given me, I offer it to Shree Radha Raman!
Gurudev Maharaj always used to say; ‘Bhaiya please don’t do Pranams to me because I cannot accept any Pranams!’ He always used to say- ‘I don’t accept your Pranams but I keep on collecting them and when I am standing in front of Shree Radha Raman then I offer my Pranams to Him first and then after offering the account of the number of Pranams received, I offer them at His Lotus Feet’!
This is the divine beauty. When you get all this then you get Vivek. That Vivek is your first Guru!
Like the security cameras which are fitted all around, sitting in one place, you can see and inspect what is going on thereby in a way giving you a broad vision. In the same way, the Guru attains Siddhi when while giving the Mantra, during the Deeksha then he tunes Vivek into your ears.
Vivek is the filter which can cleanse or filter out each and every incident happening in your life! Now, what type of Vivek you should get? You too keep one filter of Vivek with you. Then do whatever you like. I will not tell you nor will anyone else tell you, even if someone tries to then how much can he tell you what to do or what not to do?
Even if Lord Krishna himself tries to explain this then even if He would have narrated 7000 Shlokas in the Bhagwad Gita, it wouldn’t be enough! What can I tell you, what to do or what not? Just do one thing;
Wherever you go or whatever you do keep this one touchstone with you, that whatever I do, will this make my Radha Raman happy?
Then do whatever you like?
||Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhva Gaudeshwar Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj||
यथा त्वं विपण्यं गत्वा धनं दत्त्वा वस्तु क्रीणसि, तथैव कथायां किमपि दत्त्वा प्रज्ञां प्राप्तुं शक्नोषि । तत् किम् ? प्रथमं मनः दातव्यं ततः विवेकं ग्रहीतव्यं भविष्यति। यदि च अहं दत्तं मनः मम जेबं स्थापयामि, तर्हि मया आत्मनः नाशः कृतः, भवतः अपि सर्वेषां नाशः कृतः, मम समाप्तिः तदा एव भविष्यति यदा भवतः मनः मम कृते ददति अहं च भवतः मनः राधारमणे ददामि।
गुरुदेव महाराज सदा एक बात कहते थे – भाई, नमन न कर। वयं भवतः कस्यापि अभिवादनस्य स्वीकारं न कुर्मः।सः सर्वदा वदति स्म – वयं भवतः नमस्कारं न स्वीकुर्मः, अपितु भवतः दत्तान् नमस्कारान् संग्रहयन्तः स्मः तथा च यदा वयं राधारमणस्य पुरतः स्थित्वा तेषु अस्माकं नमस्कारं योजयित्वा वदामः, अहम् तत्र आसन्, एतावन्तः नमस्काराः राधारमणस्य चरणयोः आगताः। अहं आत्मानं समर्पयामि।
तत् दैवत्वम् । यदा त्वं एतत् प्राप्स्यसि तदा त्वं प्रज्ञां प्राप्स्यसि। सः अन्तःकरणः भवतः प्रथमः आचार्यः अस्ति।
यथा भिन्नस्थानेषु कॅमेरा-यंत्राणि स्थापितानि सन्ति तथा च मनुष्यः एकस्मिन् स्थाने उपविश्य सर्वं निरीक्ष्य एकस्मात् स्थानात् नेत्राणि विस्तारयति। एवं प्रकारेण गुरुसिद्धिः अस्मिन् एव निहितम् । दीक्षासमये मन्त्रेण सह विवेकमपि भवतः कर्णे स्थापयति।
जीवने घटमानानां प्रत्येकं घटनां छानयितुं शक्नुवन् अन्तःकरणं चलनी अस्ति। विवेकश्च कः प्राप्तव्यः ? भवन्तः अपि स्वस्य अन्तः अन्तःकरणं धारयन्ति, चलनीं, मानदण्डं च स्वस्य समीपे धारयन्ति। यत् इच्छसि तत् कुरु। अहं त्वां न वक्ष्यामि, न कश्चित् वक्ष्यति, अहं कथयितुं गच्छामि चेदपि कियत् कर्तव्यं किं न कर्तव्यं इति वक्तुं शक्नोमि?
श्रीकृष्णस्य भगवद्गीता यदि एतत् कथयितुं उद्दिष्टा अपि स्यात् तथापि ७००० श्लोकेषु अपि सा पूर्णा न स्यात्। कथं वदामि किं कर्तव्यं किं न कर्तव्यम् । केवलं एकं कार्यं कुरुत;
यदा कदापि भवन्तः कुत्रापि गच्छन्ति तदा केवलं भवद्भिः सह स्पर्शशिला स्थापयन्तु यत् अहं यत् किमपि करोमि तत् मम राधारमणं रोचते वा?
ततः केवलं यत् इच्छति तत् कुरुत।
॥परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज ॥