बड़े से बड़ा वैराग्य का नियम भी गुरु पर लागू नहीं होता। बड़े से बड़ा बैरागी भी गुरु चरणों में परम रागी हो सकता है। और यही उसके वैराग्य की प्रपुष्टि है।
जैसे कोई भूमि खाली कर दी जाए तो उस पर कोई भी अनजान व्यक्ति अपना दावा कर सकता है, अपने मकान, अपनी व्यवस्था बना सकता है। पर अगर खाली जमीन करने के बाद भी उस पर सुदृढ़ प्राचीर तैयार कर दी जाए, उसकी सीमा सुदृढ़ बना दी जाए तो कोई भी अन्य व्यक्ति उसमें प्रवेश नहीं कर सकता। उसी प्रकार
वैराग्य के माध्यम से अपने मन को निर्मल करते हुए सारी की सारी शक्ति वस्तुओं को अगर साधु अपने अंतः करण से निवृत्त करके, उसको निर्मल कर दे तो वो और सुकोमल हो जाता है। कोई भी उसके ऊपर अधिकारत्व जमा सकता है। जैसे जड़ भरत के ऊपर हिरण आधिपत्य जमा लेता है। कितनी आसानी से।
जो महल में नहीं फंसा, राज्य में नहीं फंसा, जो पत्नी पुत्र स्वजन संबंधी में नहीं फंसा पर एक हिरण में फँस गया। क्योंकि जब भूमि खाली रहती है तो कोई कुत्ता बिल्ली भी उस में घुस जाते हैं पर अगर उसकी प्राचीर सीमा सुदृढ़ बन जाए तो कोई अनाधिकारी व्यक्ति उसमें प्रवेश नहीं कर सकता।
ऐसे ही अगर वैराग्य के द्वारा अगर हमने अपने अंतःकरण को पवित्र किया है तो एक काम करो उस अंतःकरण के चारों तरफ गुरुकृपा की प्राचीर सुदृढ़ प्राचीर तैयार करना पड़ेगा।
महात्मा चौकी पर क्यों बैठता है? क्योंकि वो चौकीदार होता है। हाथ में दंड लिए रहता है। जो उस प्राचीर पर सुदृढ़ व्यवस्था बनाकर रखता है कि कोई कहीं माया प्रवेश ना कर सके, कोई काल प्रवेश न कर सके, कोई मोह प्रवेश न कर सके, कोई भी व्यावृत्तियाँ प्रवेश न कर सके। अगर कोई माया का स्मरण करता है तो उसे निकाल दिया जाए और अगर कोई कृष्णनाम बोलता है तो द्वार खोलकर उसको भीतर प्रवेश करा दिया जाए।
यह जो गुरुकृपा की परम महिमा है इसे कौन अवलोकन वर्णन कर सकता है?
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
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|| Shree Radharamanno Vijayatey ||
Even the most prominent rule of ‘Vairagya’ or renunciation does not apply to the Guru. The biggest renunciate can become a ‘Ragi’ or passionate at the Lotus Feet of his Guru. This alone is the fulfilment of his ‘Vairagya’.
Like on any vacant land any unknown person can go and occupy it and construct a house. On the vacant plot, if a strong boundary wall is constructed and it is enclosed form all sides, no trespasser can enter it. In the same way,
Through the medium of ‘Vairagya’, when the Sadhu cleanses the inner senses or ‘Antaha-Karana’ and empties it completely then it becomes pure and very supple. Taking advantage of this, anyone or anything can establish control over it. Like we see in the case of ‘Jadd-Bharat’ the deer takes control of his heart so easily!
He did not get attracted or attached to the palace, the kingdom, wife, son, family or the relatives, but got attached to the deer. Because, on vacant land, stray dogs, cats, or cattle can enter without any hinderance but if there is a strong boundary wall enclosing it, no one can enter.
Similarly, by renunciation if you have been able to cleanse or purify your inner-senses then please enclose it with a strong boundary of your Guru’s grace.
Why does the Mahatma sit on a ‘Chauki’? Because, he is a ‘Chaukidar’, carrying a stick in his hand and keeping a watch on the boundary so that Maya should not even get close to it, ‘Moha’ is kept at bay, ‘Kaal’ cannot enter or for that matter no external thoughts or disposition can even raise its head. If anyone thinks of Maya even by mistake, it is instantly removed and if ‘Krishna-Naam’ is heard then it is accorded a grand welcome with open arms and taken within!
This greatness of the Guru’s grace, who can fathom or describe it?
|| Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj ||
श्री पुण्डरीक जी सूत्र (०३-०६-२०२३)
महता निरपेक्षनियमोऽपि गुरुं न प्रवर्तते। बृहत्तमः एकान्तवासी अपि गुरुचरणयोः परमभक्तः भवितुम् अर्हति। एतच्च तस्य शान्ततायाः पुष्टिः।
यथा – यदि भूमिः रिक्तः भवति तर्हि कोऽपि अज्ञातः व्यक्तिः तां स्वकीया इति दातुं शक्नोति, स्वस्य गृहं, स्वस्य व्यवस्थां कर्तुं शक्नोति। किन्तु भूमिं शून्यं कृत्वा अपि यदि तस्मिन् दृढं प्राचीरं सज्जीकृतं भवति, तस्य सीमा दृढा भवति, तदा अन्यः कोऽपि व्यक्तिः तस्मिन् प्रवेशं कर्तुं न शक्नोति। तथा
अरुचिद्वारा मनः शुद्धं कुर्वन् यदि मुनिः स्वस्य अन्तःकरणात् सर्वाणि शक्तिविषयाणि निवृत्त्य शुद्धं करोति तर्हि तत् मृदुतरं भवति। तस्य उपरि कोऽपि अधिकारं प्रयोक्तुं शक्नोति । यथा मृगः आधिपत्यं जडं भारतम् | कियत् सुलभम्
यः प्रासादे न फसति स्म, सः राज्ये न फसति स्म, यः पत्नीपुत्रबान्धवेषु न फसति स्म किन्तु मृगे फसति स्म। यतः यदा भूमिः शून्या तिष्ठति तदा श्वः बिडालः वा अपि तस्मिन् प्रविष्टुं शक्नोति, परन्तु यदि तस्याः प्राचीरसीमा दृढा भवति तर्हि कोऽपि अनधिकृतः व्यक्तिः तस्मिन् प्रवेशं कर्तुं न शक्नोति।
तथैव यदि अस्माभिः अरुचिद्वारा अस्माकं अन्तःकरणं शुद्धं कृतं तर्हि एकं कार्यं कुरुत, तस्य अन्तःकरणस्य परितः गुरुप्रसादस्य दृढप्राचीराणि सज्जीकर्तुं प्रवृत्ताः भविष्यन्ति।
किमर्थं महात्मा पदं उपविशति ? यतः सः प्रहरणकर्ता अस्ति। दण्डं हस्ते धारयति। यः तस्मिन् प्राचीरे दृढं व्यवस्थां धारयति यत् कोऽपि माया न प्रविशति, न कालः प्रविशति, न माया प्रविशति, न विक्षेपाः प्रविशन्ति। यदि कश्चित् माया स्मरणं करोति तर्हि सः बहिः क्षिप्य यदि कश्चित् कृष्णनाम उच्चारयति तर्हि द्वारं उद्घाट्य अन्तः प्रवेशः करणीयः।
गुरुप्रसादस्य परमं महिमा इति एतत् अवलोकनं केन वर्णयितुं शक्यते।
.. परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।