जो तन से सेवा करता है उसको देहाभिमान् नहीं होता। ये इसका परिणाम है। इसलिए कभी कभी खुद करना चाहिए। कोई खिलाए तो खुद खिलाओ। कभी अवसर लगे तो खुद करना चाहिए। माना घर में ठाकुर जी भी हैं, पंडित जी भी हैं, पुजारी जी भी हैं सब करते हैं। कभी-कभी मन ऐसा हो कि सामने बैठकर ठाकुर को तुम स्वयं सजाओ।
हम सेवाओं की व्यवस्था बहुत आसानी से करते हैं। व्यवस्था तो बनाना बहुत आसान है पर खुद करना थोड़ा कठिन है। शास्त्र कहता है जो धन से सेवा करें वह देह अभिमान से मुक्त होता है। देहा अभिमान मतलब शरीर का अभिमान। ये भी एक प्रकार का अभिमान है।
समर्थ होते हुए भी कभी खुद भी करिए।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
|| Shree Radharamanno Vijayatey ||
The person who does physical service will not have any pride. This is the effect of service! That is why, from time to time, please perform some form of physical service, yourself. If someone else feeds then try to feed yourself. Be on the lookout for a n opportunity to serve yourself. You have a ‘Thakur-Bari’ at home, a Pandit is there, a priest is there to do all the service, I understand but at times sit in front of the Deity and try to do the ‘Shringar’ yourself!
We make arrangements for someone else to do the service on our behalf. It is very easy to arrange but not so easy to do it yourself. The scriptures say that the person who performs the service of the Lord himself, is free from pride or ego! Here, pride or ‘Dehabhimaan’ means the pride of one’s body. This too is a form of pride!
In spite of being able to arrange everything, kindly do some service yourself!
|| Param Aaradhya Poojya Shree Sadguru Bhagwanju ||
श्री पुण्डरीक जी सूत्र (०१-०७-२०२३)
शरीरेण सह सेवमानस्य देहचेतना न भवति। इति परिणामः । अत एव कदाचित् भवता स्वयमेव कर्तव्यम्। यदि कश्चित् भवन्तं पोषयति तर्हि स्वयमेव पोषयतु। यदि अवसरः अस्ति तर्हि भवन्तः स्वयमेव तत् कुर्वन्तु। ठाकुर जी अपि गृहे अस्ति, पंडित जी अपि अस्ति, पुजारी जी अपि अस्ति, सर्वे कुर्वन्ति इति भावः। कदाचित् मनः तादृशं भवेत् यत् पुरतः उपविश्य स्वयं ठाकुरं अलङ्करोतु।
वयं बहु सुलभतया सेवानां व्यवस्थां कुर्मः। व्यवस्थां कर्तुं अतीव सुलभं किन्तु स्वयमेव कर्तुं किञ्चित् कठिनम्। धनेन सेवते स देहदर्परहितो भवति इति शास्त्रम् । शरीरगर्व इत्यर्थः शरीरगर्वः । एषः अपि एकप्रकारः अभिमानः अस्ति ।
समर्थः सन् कदाचित् स्वयमेव कुरु।
-परमराध्य: पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी ॥