भगवान का रूप बदलता है, रूप के अनुसार भगवान का गुण भी बदलता है, लीला भी बदलती है, नाम भी बदलता है सब बदलता है। नाम धाम रूप लीला गुण यह पाँचों बदलते हैं पर ठाकुरजी की दृष्टि कभी नहीं बदलते।
जो राम की दृष्टि है नरसिंह की वही दृष्टि है।
जैसे ही प्रहलाद गोदी में आए, अभी वो नरसिंह है उग्र होकर जो हिरण्यकशिपु का उदर चीर रहे थे, आँतों को निकालकर गर्दन में डाल रखा था, लहूलुहान हाथ में खून लगा हुआ था यह दिव्य सिंह हैं और वही प्रहलाद को गोदी में बिठाकर कहते हैं-
मुझे आने में देरी हो गई हो तो मुझे तु क्षमा कर। आँखों से नरसिंह के आँसू बहने लगते हैं। तू तो बड़ा प्यारा है लाड आ जाता है नरसिंहदेव को।
ठाकुरजी रूप बदल सकते हैं पर दृष्टि कभी नहीं बदलते। वृंदावन में कितने रूपों में हैं। राधावल्लभ जी बैठे हैं, बिहारीजी बैठे हैं, राधारमणजी बैठे हैं, गोविंददेवजी बैठे हैं, गोपीनाथजी मदनमोहनजी रोज हर दो-चार दिनों में एक नया ठाकुर बैठे। पर एक की शक्ल दूसरे से नहीं मिलती। एक ही नाम, एक ही मैया, एक ही पिता, एक ही जगह, एक ही लीला और शक्ल छत्तीस हजार!!
रूप बदलते हैं पर गोपाल की वह करुणामयी दृष्टि नहीं बदलती।
वामन ने भी रत्नमाला को देख लिया। बलि के दरबार में गए बामन। पूतना ने ठाकुरजी को भी दृष्टि से पहचाना। वामन का रूप और ठाकुरजी के रूप में तो बहुत फर्क है। दृष्टि वही है। तभी तो ठाकुरजी ने दृष्टि बंद करी, पूतना को देखकर कुछ नहीं बंद किया। यह जान जाएगी न हाथ हटाया, न रूप बदला। देखते ही श्रीशुकदेवजी ने स्पष्ट संकेत किया; तुरंत आँख मूंद ली। कहीं यह देख न ले नहीं तो पहचान जाएगी।
क्योंकि ठाकुरजी सब बदल सकते हैं
आँखें नहीं बदल सकते, दृष्टि नहीं बदल सकते। दृष्टि होते ही करुणा आएगी ही आएगी। एकदम भक्तों पर पहुँच जाएगी। यह बात शास्त्रीय क्या वैज्ञानिक भी है।
एक बात पक्की है ठाकुर जी के नेत्र कभी नहीं बदलेंगे। नेत्र का मतलब है दृष्टि। नेत्र तो ऊपर की आकृति है दृष्टि। दृष्टि नहीं बदलती है। नेत्र तो बद्रीनाथजी के अलग है बंद है, जगन्नाथजी के अलग है गोल गोल बड़ी-बड़ी हैं बिल्कुल चौक गए हैं। देख रहे हैं कोई सच में आया है कि नहीं। राधारमणलालजी कि अलग है। राधारमणजी जरा अलग से ताक रहे हैं। श्रीनाथजी के अलग हैं थोड़े-थोड़े खोले हैं देख रहे हैं कौन कौन आया
पर उनके पीछे जो दृष्टि है वह सब में एक ही है। और वह दृष्टि प्रेम दृष्टि है। करुणा की दृष्टि है। ठाकुरजी करुणा की दृष्टि से देखते हैं। देखते ही ठाकुर जी की दृष्टि में करुणा जग जाती है।
प्रणत देहिनाम् पाप कर्षणम्।।
प्रणाम करते ही ठाकुरजी पापों का आकर्षण कर लेते हैं।
यही उसका परमतम् विशुद्धतम् मंगलमय भाव है।
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।