इस दुनिया में जो रास के प्रति नासमझी दिखायी है कोई औकात वाला आदमी इसे समझ सकता है। अरे! भगवान कुछ स्त्रियों के साथ नाचे यही रास है क्या?? देखने में ये जितना नृत्य है समझने में इसमें उतनी ही समाधि है।
हम जब अपने शरीरस्थित होकर वाह्य वस्तुओं का उपभोग करते हैं उसे भोग कहा जाता है। पर जब हम शरीरस्थित होकर आत्माराम हो जाते हैं (वाह्य वस्तुओं की जगह जब हमारा फ्लो भीतर हो जाय) ये कान दूर तक की सुन पाते हैं पलट कर अपने अन्दर की नहीं सुन पाते। ये आँख दूर तक देख सकती है पलट कर अपने भीतर नहीं देख पाती। ये नाक दूर की सूँघ लेती है अपने भीतर की खुशबू नहीं ले पाती।
भक्ति का अर्थ केवल इतना सा है कान बंद नहीं करना है घुमाना है। योग निरोध की बात करता है भक्ति बोध की बात करती है।
केवल आँख बंद करना शून्यता है केवल आँख बंद करना सोना है। धृतराष्ट्र बनना है। पर योग का अर्थ है बाहर की जगह अब भीतर देखना है। उसे योगी कहते हैं। तीसरी स्थिति एक और है
पहली स्थिति जब शरीरस्थित होकर जब वाह्य वस्तुओं का उपभोग हो उसे भोग कहा जाता है। दूसरी स्थिति जब शरीरस्थित होकर आत्मा का आस्वादन हो उसे योग कहा जाता है। पर तीसरी स्थिति जब शरीर से निवृत्त होकर आत्मा में स्थित होकर परमात्मा की अनुभूति की जाय उसे समाधि कहा जाता है। पर चौथी स्थिति जहाँ तक कोई नहीं पहुँच सका
जहाँ परमात्मा में स्थित होकर वो परमात्मा की भी जो अंतस् आत्मा है जब उसका आस्वादन किया जाता है तब उसे रासलीला कहा जाता है।
“आत्मा तु राधिका तस्य”
।।परमाराध्य पूज्य श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य श्री पुंडरीक गोस्वामी जी महाराज ।।
|| Shree Radharamanno Vijayatey ||
A canard has been spread in the world about ‘Raas’, in reality, only a qualified person can understand its purport. Arrey! The Lord danced with a few maidens, is this what you call ‘Raas’? Visually what appears to be a dance, in reality it is Samadhi!
When we are body centric and enjoy the external objects, it is called ‘Bhog’, when we are in the state of ‘Atama-Rama’, our consciousness flows inwards. Our ears can hear sounds far away but can’t listen the inner voice, these eyes can see things which are quite distant but don’t see inwards and the nose can smell things which are far but don’t smell the inner fragrance!
Bhakti doesn’t mean closing the ears but just turn them inwards. Yoga talks about ‘Nirodha’ (Restraint) whereas, Bhakti talks about ‘Bodha’ (Awareness).
Closing the eyes to the outside world is nothingness or ‘Shoonyata’ but merely shutting them is falling asleep. We don’t need to become ‘Dhritarashtra’! The Yogi, sees inwards, not outwards. There is a third state also!
The first state is when we are centred in the body and seeing outwards enjoy the external objects, it is called ‘Bhog’. The second state is while remaining in the body, one enjoys the ‘Atman’ it is called Yoga. The third state is when one renounces the body and concentrates the consciousness towards the Divine, this is called Samadhi.
The fourth state is beyond reach, which is when one is situated in the Divine and concentrates the entire consciousness in the Divine Atman, thereby immersed in the rasa, this is the state of ‘Raas-Leela’!
‘Atama tu Radhika tasya’!
|| Param Aaradhya Poojya Shreemann Madhv Gaudeshwara Vaishnavacharya Shree Pundrik Goswamiji Maharaj ||
श्री पुण्डरीक जी सूत्र (०५-०६-२०२३)
कदम्बः कोऽपि पुरुषः अवगन्तुं शक्नोति यत् अस्मिन् लोके रासं प्रति दर्शितं अबोधम्। भो! ईश्वरः केनचित् महिलाभिः सह नृत्यति, एतत् नृत्यम् अस्ति वा?? यावत् द्रष्टव्यं नृत्यं तावत् समाधिः अवगन्तुम्।
यदा वयं शरीरे स्थित्वा बाह्यवस्तूनि भुञ्जामः तदा भोगः इति कथ्यते । यदा तु वयं शरीरे स्थित्वा आत्मविवेकी भवेम (यदा अस्माकं प्रवाहः बाह्यवस्तूनाम् स्थाने आन्तरिकः भवति) तदा एते कर्णाः दूरं श्रोतुं समर्थाः भवन्ति, परन्तु अस्माकं अन्तःकरणं व्यावृत्त्य श्रोतुं न शक्नुवन्ति। अयं चक्षुः दूरं द्रष्टुं शक्नोति, न शक्नोति व्यावर्त्य स्वस्य अन्तः द्रष्टुं शक्नोति। इयं नासिका दूरं शुष्कयति, न शक्नोति गन्धं स्वस्य अन्तः ग्रहीतुं।
भक्ति-अर्थः एतावता एव, कर्णौ मा पिधातु, मा व्यावर्तयतु। योगः निवृत्तेः विषये वदति, भक्तिः साक्षात्कारस्य विषये वदति।
केवलं नेत्रनिमीलनम् एव शून्यता, केवलं नेत्रनिमीलनम् एव सुप्तम्। धृतराष्ट्रं भवितुमर्हति। परन्तु योगस्य अर्थः अस्ति यत् बहिः स्थाने अन्तः अवलोकयितुं शक्यते। स योगी उच्यते। तृतीया स्थितिः अन्यः
शरीरे स्थिते बाह्यवस्तूनाम् उपभोगे प्रथमा स्थितिः भोग उच्यते । शरीरे स्थितस्य आत्मानः आस्वादने द्वितीया स्थितिः योग उच्यते । किन्तु तृतीया अवस्था यदा शरीरात् निवृत्ता आत्मायां स्थितः सन् परमात्मा साक्षात्कृतः भवति तदा समाधिः कथ्यते। किन्तु चतुर्थं स्थानं यत्र कोऽपि न प्राप्नुयात्
यत्र परमात्मनि स्थितः सन् परमात्मनोऽपि अन्तरात्मा आस्वादिते तदा रासलील इत्युच्यते।
“आत्मा तु राधिका तस्य” २.
परमराध्य: पूज्य: श्रीमन् माध्व गौडेश्वर वैष्णवाचार्य: श्री पुण्डरीक गोस्वामी जी महाराज।।